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________________ राजवन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय लगता है, न सोना अच्छा लगता है, न जागना अच्छा लगता है, न खाना अच्छा लगता है, न भूखे रहना अच्छा लगता है, न असंग अच्छा लगता है, न संग अच्छा लगता है, न लक्ष्मी अच्छी लगती है, और न अलक्ष्मी ही अच्छी लगती है-ऐसी दशा हो गई है। तो भी उसके प्रति आशा या निराशा कुछ भी उदय होती हुई नहीं मालूम होती । वह हो तो भी ठीक, और न हो तो भी ठीक, यह छ दुःखका कारण नहीं है। दुःखकी कारण केवल एक विषम आत्मा ही है, और वह यदि सम है तो सब सुख ही है। इस वृत्तिके कारण समाधि रहती है, तो भी बाहरसे गृहस्थपनेकी प्रवृत्ति करनेमे बहुतसे अन्तराय हैं। तो फिर अब क्या करें ? क्या पर्वतकी गुफामें चले जाय, और अहश्य हो जाय ! यही रटन रहा करती। तो भी बाह्यरूपसे कुछ संसारी प्रवृत्ति करनी पड़ती है, उसके लिये शोक तो नहीं है, तो भी उसे सहन करनेके लिये जीव इच्छा नहीं करता। परमानन्दको त्यागकर इसकी इच्छा करे भी कैसे ? और इसी कारण ज्योतिष आदिकी ओर हालमै चित्त नहीं है-किसी भी तरहके भविष्यज्ञान अथवा सिद्धियोंकी इच्छा नहीं है। तथा उनके उपयोग करनेमें भी उदासीनता रहती है, उसमें भी हालमें तो और भी अधिक रहती है।"' कुशल व्यापारी तत्वज्ञानी होकर भी राजचन्द्र एक बड़े भारी व्यापारी थे। वे जवाहरातका धंधा करते थे। सन् १९४६ में, बाईस वर्षकी अवस्था राजचन्द्रजीने श्रीयुत रेवाशंकर जगजीवनदासके साझेमें बम्बई में व्यापार आरंभ किया था। प्रारंभमें दोनों ने मिलकर कपड़ा, किराना, अनाज वगैरह बाहर भेजनेकी आबतका काम शुरू किया। तथा बादमें चलकर बड़ौदाके श्रीयुत माणेकलाल घेलामाई और सूरतके नगीनचंद आदिके साथ मोतियोंका ब्यापार चलाया । राजचन्द्रजीने अपनी कम्पनीके नियम बनाकर एक छोटीसी पुस्तक भी प्रकाशित की थी। कहनेकी आवश्यकता नहीं, श्रीमद् राजचन्द्र व्यापारमें अत्यन्त कुशल थे। अंग्रेजी भाषाका शान न होनेपर भी वे विलायतके तार आदिका मर्म अच्छी तरह समझ सकते थे। वे ब्यापारसंबंधी कार्मोको बहुत उपयोगपूर्वक खूब सोच विचार कर करते थे। यही कारण था कि उस समय मोतियों के बाज़ारमें श्रीयुत रेवाशंकर जगजीवनदासकी पेकी बम्बईकी नामी पेड़ियों में एक गिनी जाने लगी थी। स्वयं राजचन्द्रजीके भागीदार श्रीयुत माणेकलाल घेलाभाईको राजचन्द्रजीकी व्यापार-कुशलताके लिए बहुत सन्मान था। उन्होंने एक जगह कहा है:-"श्रीमान् राजचन्द्रकी साथ मेरा लगभग पन्द्रह वर्षका परिचय था, और उसमें सात आठ वर्ष तो मेरा उनकी साथ एक भागीदारके रूपमे संबंध रहा था। दुनियाका अनुभव है कि अति परिचयसे परस्परका महत्त्व कम हो जाता है। किन्तु मुझे आपको कहना पदेगा कि उनकी दशा ऐसी आस्ममय थी कि उनके प्रति मेरा भक्तिभाव दिन प्रतिदिन बढ़ता ही गया। मापर्मेसे जो व्यापारी लोग हैं, उनको अनुभव है कि व्यापारके काम ऐसे होते हैं कि बहुत बार भागीदारोंमें मतभेद हो जाता है, अनेक बार परस्परके हितमें बाधा पहुंचती है। परन्तु मुझे कहना होगा कि श्रीमान् राजचन्द्रकी साथ मेरा भागीदारका जितने वर्ष संबंध रहा, उसमें उनके प्रति किंचि ११२०-२०३-२३. २ अपने अंग्रेजी आदिके अभ्यासके विषयम राजचन्द्र लिखते है-शिशुवयमसे ही इस वृत्तिके उदय होनेसे किसी भी प्रकारका परभाषाका अभ्यास नहीं हो सका । अमुक संप्रदायके कारण शानाम्यास न हो सका । संसारके बंधनसे ऊहापोहाभ्यास भी न हो सका, और यह नहीं हो सका, इसके लिए कैसा भी खेद अथवा चिन्ता नहीं है। क्योंकि इससे आस्मा और भी अधिक विकल्पमें पर जावी (इस विकल्पकी बात मैं सबके लिए नहीं कह रहा, परन्तु मैं केवल अपनी अपेक्षासे ही कहता हूँ), और विकल्प आदिका लेश तो नाश ही करनेकी इच्छा की थी, इसलिए जो हुआ वह कल्याणकारक ही दुआ-११३-१९९-२५.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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