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________________ पत्र ४२५, ४२६, ४२७] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष ३९३ करनेमें भी बाधा नहीं । तुम्हें तथा दूसरे किसी मुमुक्षुको मात्र अपने स्वरूपका जानना ही मुख्य कर्तव्य है; और उसके जाननेके शम, संतोष, विचार और सत्संग ये साधन हैं । उन साधनोंके सिद्ध हो जानेपर और वैराग्य-उपशमके परिणामकी वृद्धि होनेपर ही, 'आत्मा एक' है अथवा 'आत्मा अनेक हैं,' इत्यादि भेदका विचार करना योग्य है। ४२५ बम्बई, श्रावण सुदी १४, १९५० निःसारताको अत्यंतरूपसे जाननेपर भी व्यवसायका प्रसंग आत्म-वीर्यकी कुछ भी मंदताका ही कारण होता है; वह होनेपर भी उस व्यवसायको करते हैं । जो आत्मासे सहन करने योग्य नहीं, उसे सहन करते हैं। यही विनती है। ४२६ बम्बई, श्रावण सुदी १४, १९५० जिस तरह आत्म-बल अप्रमादी हो, उस तरह सत्संग-सद्वाचनका समागम नित्यप्रति करना योग्य है। उसमें प्रमाद करना योग्य नहीं-अवश्य ऐसा करना योग्य नहीं। ४२७ बम्बई, श्रावण वदी १, १९५० जैसे पानीके स्वभावसे शीतल होनेपर भी उसे यदि किसी बरतनमें रखकर नीचे अग्नि जलती हुई रख दी जाय, तो उसकी इच्छा न होनेपर भी वह पानी उष्ण हो जाता है, उसी तरह यह व्यवसाय भी समाधिसे शीतल ऐसे पुरुषके प्रति उष्णताका कारण होता है, यह बात हमें तो स्पष्ट लगती है। वर्धमानस्वामीने गृहवासमें ही यह सर्व व्यवसाय असार है-कर्त्तव्यरूप नहीं है-ऐसा जान लिया था, तथापि उन्होंने उस गृहवासको त्यागकर मुनि-चर्या ग्रहण की थी। उस मुनित्वमें भी आत्मबलसे समर्थ होनेपर भी, उस बलकी अपेक्षा भी अत्यंत अधिक बलकी जरूरत है। ऐसा जानकर उन्होंने मौन और अनिद्राका लगभग साढ़े बारह वर्षतक सेवन किया है, जिससे व्यवसायरूप अग्नि तो प्रायः पैदा न हो सके। जो वर्धमानस्वामी गृहवासमें होनेपर भी अभोगी जैसे थे-अव्यवसायी जैसे थे-निस्पृह थेऔर सहज स्वभावसे मुनि जैसे थे-आत्मस्वरूप परिणामयुक्त थे, वे वर्धमानस्वामी सर्व व्यवसायमें असारता जानकर-नीरसता जानकर भी दूर रहे, उस व्यवसायको करते हुए दूसरे जीवने उसमें किस प्रकारसे समाधि रखनेका विचार किया है, यह विचार करने योग्य है। उसे विचारकर फिर फिरसे उस चर्याको प्रत्येक कार्यमें, प्रत्येक प्रवृत्तिमें, स्मरण करके व्यवसायके प्रसंगमें रहती हुई इस रुचिका नाश करना ही योग्य है। यदि ऐसा न किया जाय तो प्रायः करके ऐसा लगता है कि अभी इस जीवकी मुमुक्षु-पदमें यथायोग्य अभिलाषा नहीं हुई, अथवा यह जीव मात्र लोक-संज्ञासे ही कल्याण हो जाय, इस प्रकारकी भावना करना चाहता है। परन्तु उसे कल्याण करनेकी अभिलाषा करना योग्य नहीं है, क्योंकि दोनों ही जीवोंके एकसे परिणाम हों, और एकको बंध हो, दूसरेको बंध न हो, ऐसा त्रिकालमें भी होना योग्य नहीं। .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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