SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७९ पत्र ४१५] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वा वर्ष तुम्हारे श्री.... ." को पत्र लिखनेके विषयमें चर्चा हुई, वह यद्यपि योग्य नहीं हुआ; फिर भी वे यदि तुम्हें कोई प्रायश्चित्त दें तो उसे ले लेना, परन्तु किसी ज्ञान-वार्ताके स्वयं लिखनेके बदले तुम्हें उसे लिखानेमें आगापीछा न करना चाहिये, ऐसा साथमें यथायोग्य निर्मल अंतःकरणसे कहना योग्य है-जो बात केवल जीवका हित करनेके लिये ही है। पयूषण आदिमें साधु दूसरेसे लिखाकर पत्र-व्यवहार करते हैं, जिसमें आत्म-हित जैसा तो यद्यपि थोड़ा ही होता है, परन्तु वह रूढ़ी चल जानेके कारण लोग उसका निषेध नहीं करते । तुम उसी तरह उस रूढीके अनुसार आचरण रक्खोगे, तो भी हानि नहीं हैं जिससे तुम्हें पत्र लिखानेमें अड़चन न हो और लोगोंको भी संदेह न हो। ___ हमें उपमाकी कोई सार्थकता नहीं । केवल तुम्हारी चित्तकी समाधिके लिये ही तुम्हें लिखनेका प्रतिबंध नहीं किया। ४१५ बम्बई, वैशाख वदी ९, १९५० सूरतसे मुनिश्री...""का पहिले एक पत्र आया था । उसके प्रत्युत्तरमें यहाँसे एक पत्र लिखा था । उसके पश्चात् पाँच छह दिन पहिले उनका एक पत्र मिला था, जिसमें तुम्हारे प्रति जो पत्र आदि लिखना हुआ, उसके संबंध होनेवाली लोक-चर्चा विषयक बहुतसी बातें थी। इस पत्रका उत्तर भी यहाँसे लिख दिया है । वह संक्षेपमें इस तरह है: "प्राणातिपात आदि महावत सर्वत्यागके लिये हैं, अर्थात् सब प्रकारके प्राणातिपातसे निवृत्त होना, सब प्रकारके मृषावादसे निवृत्त होना-इस तरह साधुके पाँच महाव्रत होते हैं । और जब साधु इस आज्ञाके अनुसार चले, तब वह मुनिके सम्प्रदायमें रहता है, ऐसा भगवान्ने कहा है । इस प्रकारसे पाँच महाव्रतोंके उपदेश करनेपर भी जिसमें प्राणातिपात कारण है, ऐसी नदीके पार वगैरह करनेकी आज्ञा भी जिनभगवान्ने दी है। वह इसलिये कि जीवको नदी पार करनेसे जो बंध होगा, उसकी अपेक्षा एक क्षेत्रमें निवास करनेसे बलवान बंध होगा, और परंपरासे पाँच महाव्रतोंकी हानिका अवसर उपस्थित होगा-यह देखकर-जिसमें उस प्रकारका द्रव्य-प्राणातिपात है, ऐसी नदीके पार करनेकी आज्ञा श्रीजिनभगवान्ने दी है। इसी तरह वस्त्र पुस्तक रखनेसे ययपि सर्वपरिग्रह-विरमण व्रत नहीं रह सकता, फिर भी देहकी साताके लिये त्याग कराकर आत्मार्थकी साधना करनेके लिये देहको साधनरूप समझकर, उसमेंसे सम्पूर्ण मूर्छा दूर होनेतक जिनभगवान्ने वनके निस्पृह संबंधका और विचार-बलकी वृद्धि होनेतक पुस्तकके रखनेका उपदेश किया है । अर्थात् सर्वत्यागमें प्राणातिपात तथा परिग्रहका सब प्रकारसे अंगीकार करनेका निषेध होनेपर भी, इस प्रकारसे जिनभगवान्ने अंगीकार करनेकी आज्ञा दी है। वह सामान्य दृष्टिसे देखनेपर कदाचित् विषम मालूम होगा, परन्तु जिनभगवान्ने तो सम ही कहा है। दोनों ही बात जीवके कल्याणके लिये ही कही गई हैं। जिस तरह सामान्य जीवका कल्याण हो वैसे विचारपूर्वक ही कहा है। परन्तु इस प्रकारसे मैथुन-त्याग व्रतमें अपवाद नहीं कहा, क्योंकि मैथुनका सेवन रागद्वेषके बिना नहीं हो सकता, यह जिनभगवान्का अभिमत है । अर्थात् राग-द्वेषको अपरमार्थरूप जानकर बिना अपवादके ही मैथुन-स्यागका सेवन बताया है। इसी तरह बृहत्कल्पसूत्रमें जहाँ साधुके विचरण
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy