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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४०४ हमें हालमें प्रतिबंध नहीं है, परन्तु दूसरे पुरुषार्थके विषयमें तो सर्वथा उदासीनता ही है और इसके स्मरणमें आ जानेसे भी चित्तमें खेद हो आता है। इस तरह उस पुरुषार्थके प्रति अनिच्छा ही है। जितनी आकुलता है उतना ही मार्गका विरोध है, ऐसा ज्ञानी-पुरुष कह गये हैं। ४०४ - बम्बई, फाल्गुन १९५० तीर्थकर बारम्बार नाचे कहा हुआ उपदेश करते थे: हे जीव ! तुम समझो ! सम्यक्प्रकारसे समझो ! मनुष्यता मिलना बहुत दुर्लभ है, और चारों गतियाँ भयसे व्याप्त हैं, ऐसा जानो । अज्ञानसे सद्विवेवकका पाना कठिन है, ऐसा समझो। समस्त लोक एकांत दुःखसे जल रहा है, ऐसा मानो । और सब जीव अपने अपने कर्मोसे विपर्यास भावका अनुभव करते हैं, उसका विचार करो। ( सूयगडं अध्ययन ७-१२) जिसका सर्व दुःखसे मुक्त होनेका विचार हुआ हो, उस पुरुषको आत्माकी गवेषणा करनी चाहिये, और यदि आत्माकी गवेषणा करना हो तो यम, नियम आदि सब साधनोंके आग्रहको अप्रधान करके सत्संगकी गवेषणा एवं उपासना करनी चाहिये । जिसे सत्संगकी उपासना करना हो उसे संसारकी उपासना करनेके आत्मभावका सर्वथा त्याग करना चाहिये । अपने समस्त अभिप्रायका त्याग करके अपनी सर्व शक्तिसे उस सत्संगकी आज्ञाकी उपासना करनी चाहिये । तीर्थकर ऐसा कहते हैं कि जो कोई उस आज्ञाकी उपासना करता है, वह अवश्य ही सत्संगकी उपासना करता है । इस प्रकार जो सत्संगकी उपासना करता है वह अवश्य ही आत्माकी उपासना करता है, और आत्माकी उपासना करनेवाला सब दुःखोंसे मुक्त हो जाता है । ( द्वादशांगीका अखंडसूत्र )। ऊपर जो उपदेश लिखा है, वह गाथा सूयगडंमें निम्नरूपसे है: संबुजाहा जंतवो माणुसतं, दटुं भयं बालिसेणं अलंभो। एगंतदुक्खे जरिए व लोए, सकम्मुणा विप्परिया मुवेइ । सब प्रकारकी उपाधि, आधि और व्याधिसे यदि मुक्तभावसे रहते हों, तो भी सत्संगमें सन्निविष्ट भक्ति, हमें दूर होना कठिन मालूम होती है । सत्संगकी सर्वोत्तम अपूर्वता हमें दिन-रात रहा करती है, फिर भी उदय-योग प्रारब्धसे उस प्रकारका अंतराय रहा करता है । प्रायः करके हमारी आत्मामें किसी बातका खेद उत्पन्न नहीं होता, फिर भी प्रायः करके सत्संगके अंतरायका खेद तो दिन-रात रहा करता है । सर्व भूमि, सब मनुष्य, सब काम, सब बात-चीत आदिके प्रसंग, स्वाभाविकरूपसे अज्ञात जैसे, सर्वथा परके, उदासीन जैसे, अरमणीय, अमोहकर और रसरहित भासित होते हैं। केवल ज्ञानी-पुरुष, मुमुक्षु पुरुष अथवा मार्गानुसारी पुरुषोंका सत्संग ही ज्ञात, निजका, प्रीतिकर, संदर, आकर्षक और रसस्वरूप भासित होता है । इस कारण हमारा मन प्रायः करके अप्रतिबद्धताका सेवन करते करते तुम जैसे मार्गेच्छावान पुरुषोंमें प्रतिबद्धता प्राप्त करता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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