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________________ ३६४ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३९८, ३९९, ४०० कारण आत्मामें गुणकी विशेष स्पष्टता रहती है । प्रायः करके अबसे यदि बने तो नियमितरूपसे कोई सत्संगकी बात लिखना। ३९८ बम्बई, फाल्गुन सुदी ४ रवि. १९५० बारंबार अरुचि हो जाती है, फिर भी प्रारब्ध-योगसे उपाधिसे दूर नहीं हुआ जा सकता । (२) हालमें डेढ़-दो महिने हुए उपाधिके प्रसंगमें विशेष विशेषरूपसे संसारके स्वरूपका वेदन हुआ है । यद्यपि इस प्रकारके अनेक प्रसंगोंका वेदन किया है, फिर भी प्रायः ज्ञानपूर्वक वेदन नहीं किया । इस देहमें और उस पहिलेकी बोध-बीज हेतुवाली देहमें किया हुआ वेदन मोक्ष-कार्यमें उपयोगी है । ३९९ बम्बई, फाल्गुन सुदी ११ रवि. १९५० __" तीर्थंकरदेव प्रमादको कर्म कहते हैं, और अप्रमादको उससे विपरीत अर्थात् अकर्मरूप आत्मस्वरूप कहते हैं । इस प्रकारके भेदसे अज्ञानी और ज्ञानीका स्वरूप है ( कहा है ) "-सूयगडंसूत्रवीर्य-अध्ययन । "जिस कुलमें जन्म हुआ है, और जीव जिसके सहवासमें रहता है, उसमें यह अज्ञानी जीव ममता करता है, और उसीमें निमग्न रहा करता है "-(सूयगडं-प्रथमाध्ययन ). " जो ज्ञानी-पुरुप भूतकालमें हो गये हैं, और जो ज्ञानी-पुरुष भविष्यकालमें होंगे, उन सब पुरुषोंने " शांति " ( समस्त विभाव परिणामसे थक जाना--निवृत्त हो जाना ) को सब धर्मोका आधार कहा है। जैसे भूतमात्रको पृथ्वी आधारभूत है, अर्थात् जैसे प्राणीमात्र पृथ्वीके ही आधारसे रहते हैं—प्रथम उनको उसका आधार होना योग्य है-वैसे ही पृथ्वीकी तरह, ज्ञानी-पुरुषोंने सब प्रकारके कल्याणका आधार " शांति " ही कहा है "-(सूयगडं) ४०० बम्बई, फाल्गुन सुदी ११ रवि. १९५० (१) बुधवारको एक पत्र लिखेंगे, नहीं तो रविवारको विस्तारसहित पत्र लिखेंगे, ऐसा लिखा था; उसे लिखते समय चित्तमें यह आया था कि तुम मुमुक्षुओंको कोई नियम जैसी स्थिरता होनी चाहिये, और उस विषयमें कुछ लिखना सूझे तो लिखना चाहिये । लिखते समय ऐसा हुआ कि जो कुछ लिखा जाता है, उसे सत्संगके समागममें विस्तारसे कहना योग्य है, और वह कुछ फलस्वरूप होने योग्य है। इतनी बातका निश्चय रखना योग्य है कि ज्ञानी-पुरुष भी प्रारब्ध कर्मके भोगे बिना निवृत्त नहीं होता, और बिना भोगे निवृत्त होनेकी ज्ञानीको कोई इच्छा भी नहीं होती । ज्ञानीके सिवाय दूसरे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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