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________________ पत्र ३८१, ३८२] विविध पत्र आदि संग्रह–२६वाँ वर्ष . ४. हमारा उदय इस प्रकार रहता है कि इस तरहकी उपदेशकी बात करते हुए वाणी पीछे खिंच जाती है। हाँ, कोई साधारण प्रश्न पूछे तो उसमें वाणी प्रकाश करती है और उपदेशकी बातमें तो वाणी पीछे ही खिंच जाती है। इस कारण हम ऐसा मानते हैं कि अभी उस प्रकारका उदय नहीं है । ५. पूर्ववर्ती अनंतज्ञानी यद्यपि महाज्ञानी हो गये हैं, परन्तु उससे जीवका कोई दोष दूर नहीं होता । अर्थात् यदि इस समय जीवमें मान हो तो उसे पूर्ववर्ती ज्ञानी कहनेके लिये नहीं आते; परन्तु हालमें जो प्रत्यक्ष ज्ञानी विराजमान हों, वे ही दोषको बताकर दूर करा सकते हैं । उदाहरणके लिये दूरके क्षीरसमुद्रसे यहाँके तृषातुरकी तृषा शान्त नहीं हो सकती, परन्तु वह यहाँके एक मीठे पानीके कलशेसे ही शान्त हो सकती है। ६. जीव अपनी कल्पनासे कल्पना कर लेता है कि ध्यानसे कल्याण होगा, समाधिसे कल्याण होगा, योगसे कल्याण होगा, अथवा इस इस प्रकारसे कल्याण होगा; परन्तु उससे जीवका कोई कल्याण नहीं हो सकता। जीवका कल्याण तो ज्ञानी पुरुषके लक्षमें रहता है, और वह परम सत्संगसे ही समझमें आ सकता है । इसलिये वैसे विकल्पोंका करना छोड़ देना चाहिये । ७. जीवको सबसे मुख्य बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि यदि सत्संग हुआ हो तो सत्संगमें श्रवण किये हुए शिक्षा-बोधके निष्पन्न होनेसे, सहजमें ही जीवके उत्पन्न हुए कदाग्रह आदि दोष तो छूट ही जाने चाहिये, जिससे दूसरे जीवोंको सत्संगके अवर्णवादके बोलनेका प्रसंग उपस्थित न हो। ८. ज्ञानी-पुरुषने कुछ कहना बाकी नहीं रक्खा है, परन्तु जीवने करना बाकी रक्खा है । इस प्रकारका योगानुयोग किसी समय ही उदयमें आता है। उस प्रकारकी वाँछासे रहित महात्माकी भक्ति तो सर्वथा कल्याणकारक ही होती है; परन्तु किसी समय महात्माके प्रति यदि उस प्रकारकी वाँछा हुई और उस प्रकारकी प्रवृत्ति हो चुकी हो, तो भी वही वाँछा यदि असत्पुरुषके प्रति की हो, और उससे जो फल होता है, उसकी अपेक्षा इसका फल जुदा ही होना संभव है । यदि सत्पुरुषके प्रति उस कालमें निःशंकता रही हो तो काल आनेपर उनके पाससे सन्मार्गकी प्राप्ति हो सकती है । एक प्रकारसे हमें अपने आप इसके लिये बहुत शोक रहता था, परन्तु उसके कल्याणका विचार करके शोकको विस्मरण कर दिया है। ९. मन वचन और कायाके योगसे जिसका केवलीस्वरूप भाव होकर अहंभाव दूर हो गया है, ऐसे ज्ञानी-पुरुषके परम उपशमरूप चरणारविंदको नमस्कार करके, बारम्बार उसका चितवन करके, तुम उसी मार्गमें प्रवृत्तिकी इच्छा करते रहो-यह उपदेश देकर यह पत्र पूरा करता हूँ। विपरीत कालमें अकेले होनेके कारण उदास 111 ३८२ खंभात, भाद्रपद १९४९ 'अनादिकालसे विपर्यय बुद्धि होनेसे, और ज्ञानी-पुरुषकी बहुतसी चेष्टायें अज्ञानी-पुरुष जैसी ही दिखाई देनेसे ज्ञानी-पुरुषमें विभ्रम बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, अथवा जीवको ज्ञानी-पुरुषके प्रति उस उस चेष्टाका विकल्प आया करता है । यदि ज्ञानी-पुरुषका दूसरी दृष्टियोंसे यथार्थ निश्चय हुआ हो
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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