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________________ पत्र ३७८, ३७९, ३८०]. विविध पत्र आदि संग्रह-२६याँ वर्ष । ३७८ बम्बई, श्रावण सुदी ५, १९४९ (१) जौहरी लोग ऐसा मानते हैं कि यदि एक साधारण सुपारी जैसे उत्तम रंगका, पानीदार और घाटदार माणिक ( प्रत्यक्ष ) दोषरहित हो, तो उसकी करोड़ों रुपये भी कीमत गिनें तो भी वह कीमत थोड़ी है । यदि विचार करें तो इसमें केवल आँखके ठहरने और मनकी इच्छाकी कल्पित मान्यताके सिवाय दूसरी और कोई भी बात नहीं है । फिर भी इसमें एक आँखके ठहरनेकी खूबीके लिये और उसकी प्राप्तिके दुर्लभ होनेके कारण लोग उसका अद्भुत माहात्म्य बताते हैं, और जिसमें आत्मा स्थिर रहती है, ऐसे अनादि दुर्लभ सत्संगरूप साधनमें लोगोंकी कुछ भी आग्रहपूर्वक रुचि नहीं है, यह आश्चर्यकी बात विचार करने योग्य है। (२) असत्संगमें उदासीन रहनेके लिये जब जीवका अप्रमादरूपसे निश्चय हो जाता है, तभी सज्ञान समझा जाता है । उसके पहिले प्राप्त होनेवाले बोधमें बहुत प्रकारका अंतराय रहा करता है। ३७९ बम्बई, श्रावण सुदी१५रवि.१९४९ प्रायः करके आत्मामें ऐसा ही रहा करता है कि जबतक इस व्यापार-प्रसंगमें काम-काज करना रहा करे, तबतक धर्म-कथा आदिके प्रसंगमें और धर्मके जानकारके रूपमें किसी प्रकारसे प्रगटरूपमें न आया जाय, यही क्रम यथायोग्य है । व्यापार-प्रसंगके रहनेपर भी जिसके प्रति भक्तिभाव रहा करता है, उसका समागम भी इसी क्रमसे करना योग्य है कि जिसमें आत्मामें जो ऊपर कहा हुआ क्रम रहा करता है, उस क्रममें कोई बाधा न हो। जिनभगवान्के कहे हुए मेरु आदिके संबंधों और अंग्रेजोंकी कही हुई पृथिवी आदिके संबंधमें समागम होनेपर बातचीत करना। हमारा मन बहुत उदासीन रहता है, और प्रतिबंध इस प्रकारका रहा करता है कि जहाँ वह उदासभाव सम्पूर्ण गुप्त जैसा करके सहन न किया जाय, इस प्रकारके व्यापार आदि प्रसंगमें उपाधियोग सहन करना पड़ता है; यद्यपि वास्तविकरूपसे तो आत्मा समाधि-प्रत्ययी है। . ३८० बम्बई, श्रावण वदी ५, १९४९ गतवर्ष मंगसिर सुदी ६ को यहाँ आना हुआ था, तबसे लगाकर आजतक अनेक प्रकारका उपाधि-योग सहन किया है, और यदि भगवत्कृपा न हो तो इस कालमें उस प्रकारके उपाधि-योगमें धड़के ऊपर सिरका रहना भी कठिन हो जाय, ऐसा होते हुए बहुत बार देखा है; और जिसने आत्मस्वरूप जान लिया हैं ऐसे पुरुषका और इस संसारका मेल भी न खाय, यही अधिक निश्चय हुआ है। ज्ञानी-पुरुष भी अत्यंत निश्चय उपयोगसे बर्ताव करते करते भी क्वचित् मंद परिणामी हो जाय, ऐसी इस संसारकी रचना है। यधपि आत्मस्वरूपसंबंधी बोधका नाश तो नहीं होता, फिर भी आत्मस्वरूपके बोधके विशेष परिणामके प्रति एक प्रकारका आवरण होनेरूप उपाधि-योग होता है। हम तो उस उपाधि-योगसे अभी त्रास ही पाया करते हैं; और उस उस योगसे हृदयमें और मुखमें मध्यम वाणीसे प्रभुका नाम रखकर मुश्किलसे ही कुछ प्रवृत्ति करके स्थिर रह सकते हैं। यद्यपि सम्यक्त्व अर्थात ४५
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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