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________________ पत्र ३७६) विविध पत्र मादि संग्रह-२६वौ वर्ष ___ जीवको उस प्रकारकी नीरसता परमार्थ-ज्ञानसे अथवा परमार्थ-ज्ञानी पुरुषके निश्चयसे होना संभव है, दूसरे प्रकारसे होना संभव नहीं । अपरमार्थरूप संसारको परमार्थ-ज्ञानसे जानकर फिर उसके प्रति तीन क्रोध, मान, माया अथवा लोभ कौन करे अथवा वह कहाँसे हो ! जिस वस्तुका माहात्म्य दृष्टिमेंसे दूर हो गया है, फिर उस वस्तुके लिये अत्यंत क्लेश नहीं रहता । संसारमें भ्रांतिरूपसे जाना हुआ सुख, परमार्थ-ज्ञानसे भ्रांति ही भासित होता है, और जिसे भ्रांति भासित हुई है, फिर उसे वस्तुका क्या माहात्म्य मालूम होगा ! इस प्रकारकी माहात्म्य-दृष्टि परमार्थ-ज्ञानी पुरुषके निश्चययुक्त जीवको ही होती है, और इसका कारण भी यही है । कदाचित् किसी ज्ञानके आवरणके कारण जीवको व्यवच्छेदक ज्ञान न हो, तो भी उसे ज्ञानी-पुरुषकी श्रद्धारूप सामान्य ज्ञान तो होता है । यह ज्ञान बड़के बीजकी तरह परमार्थ-बड़का बीज है। तीव्र परिणामसे और संसार-भयसे रहित भावसे ज्ञानी-पुरुष अथवा सम्यग्दृष्टि जीवको क्रोध, मान, माया अथवा लोभ नहीं होता । जो संसारके लिये अनुबंध करता है, उसकी अपेक्षा परमार्थके नामसे भ्रांतिगत परिणामसे, जो असद्गुरु, देव और धर्मका सेवन करता है, उस जीवको प्रायः करके अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ होता है; क्योंकि दूसरी संसारकी क्रियायें प्रायः करके अनंत अनुबंध करनेवाली नहीं हैं। केवल अपरमार्थको परमार्थ जानकर जीव आग्रहसे उसका सेवन किया करे, यह परमार्थ-ज्ञानी पुरुषके प्रति, देवके प्रति और धर्मके प्रति निरादर है-ऐसा कहना प्रायः यथार्थ है। वह सद्गुरु, देव और धर्मके प्रति, असद्गुरु आदिके आग्रहसे, मिथ्या-बोधसे, आसातनासे, उपेक्षापूर्वक प्रवृत्ति करे, यह संभव है । तथा उस मिथ्या संगसे उसकी संसार-वासनाके परिच्छिन्न न होनेपर भी उसे परिच्छेदरूप मानकर वह परमार्थके प्रति उपेक्षक ही रहता है, यही अनंत क्रोध, मान, माया और लोभका चिह है। ३७६ बम्बई, द्वि.आषाढ वदी१०सोम.१९४९ शारीरिक वेदनाको, देहका धर्म जानकर और बाँधे हुए कर्मोका फल समझकर सम्यक्प्रकारसे सहन करना योग्य है । बहुत बार शारीरिक वेदनाका विशेष बल रहता है, उस समय जैसे ऊपर कहा है, उस तरह सम्यक्प्रकारसे श्रेष्ठ जीवोंको भी स्थिर रहना कठिन हो जाता है। फिर भी हृदयमें बारम्बार उस बातका विचार करते हुए, और आत्माकी नित्य अछेय, अभेध, और जरा, मरण आदि धर्मसे रहित भावना करते हुए-विचार करते हुए कितनी ही तरहसे उस सम्यक्प्रकारका निश्चय आता है । बड़े पुरुषोंद्वारा सहन किये हुए उपसर्ग तथा परिषहके प्रसंगोंकी जीवमें स्मृति उत्पन्न करके, उसमें उनके रहनेवाले अखंड निश्चयको फिर फिरसे हृदयमें स्थिर करने योग्य जाननेसे, जीवका वह सम्यक् परिणाम फलीभूत होता है; और फिर वेदना-वेदनाके क्षय-कालके निवृत्त होनेपर-वह वेदना किसी भी कर्मका कारण नहीं होती । जिस समय शरीर व्याधिरहित हो उस समय जीवने यदि उससे अपनी मिनता समझकर, उसका अनित्य आदि स्वरूप जानकर, उससे मोह ममत्व आदिका त्याग किया हो, तो यह महान् श्रेय है। फिर भी यदि ऐसा न हुआ हो तो किसी भी व्याधिक उत्पन्न
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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