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________________ ३३९ पत्र ३५८] विविध पत्र आदि संग्रह–२६ वाँ वर्ष आदि स्थिति होती रहती है। इस प्रकारका अनंतकाल पूर्वमें भी व्यतीत हुआ है। इन अनंत-कोटी जीवोंमें जिसने आत्म-कल्याणकी आराधना की है, अथवा जिसे आत्म-कल्याण प्राप्त हुआ है-ऐसे जीव अत्यंत ही थोड़े हैं। वर्तमानमें भी ऐसा ही है, और भविष्यमें भी ऐसी ही स्थिति होना संभव है-ऐसा ही है । अर्थात् जीवको तीनों कालमें कल्याणकी प्राप्ति होना अत्यंत दुर्लभ है-इस प्रकारका जो श्रीतीर्थकर आदि ज्ञानीका उपदेश है वह सत्य है । इस प्रकारकी जीव-समुदायकी भ्रांति अनादि संयोगसे चली आ रही है—ऐसा ठीक है—ऐसा ही है । वह भ्रांति जिस कारणसे होती है, उस कारणके मुख्य दो भेद मालूम होते हैं:-एक पारमार्थिक और दूसरा व्यावहारिक । और दोनों भेदोंका एकत्र जो अभिप्राय है वह यही है कि इस जीवको सच्ची मुमुक्षुता नहीं आई; जीवमें एक भी सत्य अक्षरका परिणमन नहीं हुआ; जीवको सत्पुरुषके दर्शनके लिये रुचि नहीं हुई; उस उस प्रकारके योगके मिलनेसे समर्थ अंतरायसे जीवको वह प्रतिबंध रहता आया है, और उसका सबसे महान् कारण असत्संगकी वासनासे जन्म पानेवाला निज-इच्छाभाव और असदर्शनमें सत्दर्शनरूप भ्रांति है। किसीका ऐसा अभिप्राय है कि आत्मा नामका कोई पदार्थ ही नहीं है । कोई दर्शनवाले ऐसा मानते हैं कि आत्मा नामक पदार्थ केवल सांयोगिक ही है। दूसरे दर्शनवालाका कथन है कि देहके रहते हुए ही आत्मा रहती है, देहके नाश होनेपर नहीं रहती । आत्मा अणु है, आत्मा सर्वव्यापक है, आत्मा शून्य है, आत्मा साकार है, आत्मा प्रकाशरूप है, आत्मा स्वतंत्र नहीं है, आत्मा का नहीं है, आत्मा का है भोक्ता नहीं है, आत्मा कर्ता नहीं है भोक्ता है, आत्मा कर्ता भी नहीं भोक्ता भी नहीं, आत्मा जड़ है, आत्मा कृत्रिम है, इत्यादि जिसके अनंत नय हो सकते हैं, इस प्रकारके अभिप्रायकी भ्रांतिके कारण असतदर्शनके आराधन करनेसे, पूर्वमें इस जीवने अपने वास्तविक स्वरूपको नहीं जाना । उस सबको ऊपर कहे अनुसार एकांत-अयथार्थरूपसे जानकर आत्मामें अथवा आत्माके नामपर ईश्वर आदिमें पूर्वमें जीवने आग्रह किया है । इस प्रकारका जो असत्संग, निज-इच्छाभाव, और मिथ्यादर्शनका परिणाम है वह जबतक नहीं मिटता, तबतक यह जीव केशरहित शुद्ध असंख्य-प्रदेशात्मक मुक्त होनेके योग्य नहीं है, और उस असत्संग आदिकी निवृत्ति करनेके लिये सत्संग, ज्ञानीकी आज्ञाका अत्यंत अंगीकार करना, और परमार्थस्वरूप जो आत्मभाव है उसे जानना योग्य है । पूर्व में होनेवाले तीर्थकर आदि ज्ञानी-पुरुषोंने ऊपर कही हुई भ्रांतिका अत्यंत विचार करके, अत्यंत एकाग्रतासे–तन्मयतासे-जीवका स्वरूप विचार करके जीवके स्वरूपमें शुद्ध स्थिति की है । उस आत्मा और दूसरे सब पदार्थोंको सब प्रकारकी भ्रांतिरहित जाननेके लिये श्रीतीर्थंकर आदिने अत्यंत दुष्कर पुरुषार्थका आराधन किया है। आत्माको एक भी अणुके आहार-परिणामसे अनन्य भिन्न करके उन्होंने इस देहमें स्पष्ट ऐसी ' अणाहारा आत्मा'को स्वरूपसे जीवित रहनेवाला देखा है । उसे देखनेवाले तीर्थकर आदि ज्ञानी स्वयं ही शुद्धात्मा हैं, तो फिर उनका भिन्नरूपसे जो देखना कहा है, वह यद्यपि योग्य नहीं है, फिर भी वाणी-धर्मसे ऐसा कहा है। . इस तरह अनंत प्रकारसे विचारनेके बाद भी जानने योग्य 'चैतन्यघन जीव' को तीर्थकरने दो
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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