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________________ ३३६ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३५५ ऐसा होना संभव नहीं, और यह इस मार्गसे होना योग्य नहीं, ऐसा हमें लगता है। जिससे यह संभव होना योग्य है, अथवा इसका जो मार्ग है, वह हालमें तो प्रवृत्तिके उद्भयमें है; और जबतक वह कारण उनके लक्षमें न आ जाय, तबतक कोई दूसरा उपाय प्रतिबंधरूप ही है-निःसंशय प्रतिबंधरूप ही है । जीव यदि अज्ञान-परिणामी हो तो जिस तरह उस अज्ञानको नियमितरूपसे आराधन करनेसे कल्याण नहीं है, उसी तरह मोहरूप मार्ग अथवा इस प्रकारका जो इस लोकसंबंधी मार्ग है, वह मात्र संसार ही है। उसे फिर चाहे जिस आकारमें रक्खो तो भी वह संसार ही है। उस संसारपरिणामसे रहित करनेके लिये जब असंसारगत वाणीका अस्वच्छंद परिणामसे आधार प्राप्त होता है, उस समय उस संसारका आकार निराकारताको प्राप्त होता जाता है । वे अपनी दृष्टिके अनुसार दूसरा प्रतिबंध किया करते हैं, तथा अपनी उस दृष्टिसे यदि वे ज्ञानीके वचनकी भी आराधना करें तो कल्याण होना योग्य मालूम नहीं होता। इसलिये तुम उन्हें ऐसा लिखो कि यदि तुम किसी कल्याणके कारणके नजदीक होनेके उपायकी इच्छा करते हो, तो उसके प्रतिबंधका कम होनेका उपाय करो; और नहीं तो कल्याणकी तृष्णाका त्याग करो । शायद तुम ऐसा समझते हो कि जैसे तुम स्वयं आचरण करते हो वैसे ही कल्याण है, मात्र जो अव्यवस्था हो गई है, वही एक अकल्याण है । परन्तु यदि ऐसा समझते हो तो वह यथार्थ नहीं है। वास्तवमें जो तुम्हारा आचरण है, उससे कल्याण भिन्न है, और वह तो जब जब जिस जिस जीवको उस उस प्रकारका भवस्थिति आदि योग समीपमें हो, तब तब उसे वह प्राप्त होने योग्य है। समस्त समूहमें ही कल्याण मान लेना योग्य नहीं है, और यदि ऐसे कल्याण होता हो तो उसका फल संसारार्थ ही हैं; क्योंकि पूर्वमें इसीसे जीव संसारी रहता आया है; इसलिये वह विचार तो जब जिसे आना होगा तब आयेगा। हालमें तुम अपनी रुचिके अनुसार अथवा जो तुम्हें भास होता है, उसे कल्याण मानकर प्रवृत्ति करते हो, इस विषयमें सहज ही, किसी प्रकारकी मानकी इच्छाके बिना ही, स्वार्थक इच्छाके बिना ही, तुम्हें क्लेश उत्पन्न करनेकी इच्छाके बिना ही, मुझे जो कुछ चित्तमें लगता है, उसे कह देता हूँ। • जिस मार्गसे कल्याण होता है उस मार्गके दो मुख्य कारण देखनेमें आते हैं । एक तो यह कि जिस सम्प्रदायमें आत्मार्थके लिये ही सम्पूर्ण असंगतायुक्त क्रियायें हों-दूसरे किसी भी प्रयोजनकी इच्छासे न हों, और निरंतर ही ज्ञान-दशाके ऊपर जीवोंका चित्त रहता हो, उसमें अवश्य ही कल्याणके उत्पन्न होनेका योग मानते हैं। यदि ऐसा न हो तो योगका मिलना संभव नहीं है । यहाँ तो लोक-संज्ञासे, ओघ-संज्ञासे, मानके लिये, पूजाके लिये, पदके महत्त्वके लिये, श्रावक आदिके अपनेपनके लिये, अथवा इसी तरहके किसी दूसरे कारणोंसे जप, तप आदि व्याख्यान आदिके करनेकी प्रवृत्ति चल पड़ी है। परन्तु बह किसी भी तरह आत्मार्थके लिये नहीं है-आत्मार्थक प्रतिबंधरूप ही है। इसलिये यदि तुम कुछ इच्छा करते हो तो उसका उपाय करनेके लिये जो दूसरा कारण कहते हैं, उसके असंगतासे साध्य होनेपर किसी समय भी कल्याण होना संभव है। असंगता अर्थात् आत्मार्थके सिवाय संग-प्रसंगमें नहीं पड़ना-शिष्य आदि बनानेके कारण संसारके साथियों के संगमें बातचीत करनेका प्रसंग नहीं रखना, शिष्य आदि बनानेके लिये गृहवासी
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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