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________________ बाल्यावस्था जुदे जुदे अवतारसम्बन्धी चमत्कारों को सुना था। जिससे इनकी उन अवतारोंमें भक्ति और प्रीति उत्पन्न हो गई थी और इन्होंने गमदासजी नामक साधुसे बालकंठी बंधवाई थी। ये नित्य ही कृष्णके दर्शन करने जाते; उनकी कथाएँ सुनते; उनके अवतारोंके चमत्कारोंपर बारबार मुग्ध होते और उन्हें परमात्मा मानते थे। " इस कारण उनके रहनेका स्थल देखनेकी मुझे परम उत्कंठा थी। मैं उनके सम्प्रदायका महंत अथवा स्यागी होऊँ तो कितना आनन्द मिले, बस यही कल्पना हुआ करती थी। तथा जब कभी किसी धन-वैभवकी विभूति देखता तो समर्थ वैभवशाली होनेकी इच्छा हुआ करती थी। उसी बीचमें प्रवीणसागर नामक ग्रन्थ भी मैं पढ़ गया था। यद्यपि उसे अधिक समझा तो न था, फिर भी स्त्रीसम्बन्धी सुखमें लीन होऊँ और निरुपाधि होकर कथाएँ श्रवण करता होऊँ, तो कैसी आनन्द दशा हो ! यही मेरी तृष्णा रहा करती थी।" गुजराती भाषाकी पाठमालामें राजचन्द्रजीने ईश्वरके जगत्कर्तृत्वके विषयमै पका था। इससे उनै यह बात हद हो गई थी कि जगत्का कोई भी पदार्थ बिना बनाये नहीं बन सकता । इस कारण उन्हें जैन लोगोंसे स्वाभाविक जुगुप्सा रहा करती थी। वे लिखते हैं:-" मेरी जन्मभूमिमें जितने वणिक् लोग रहते थे उन सबकी कुल-श्रद्धा यद्यपि भिन्न भिन्न थी, फिर भी वह थोड़ी बहुत प्रतिमापूजनके अश्रद्धालुके ही समान थी। इस कारण उन लोगोंको ही मुझे सुधारना था। लोग मुझे पहिलेसे ही समर्थ शकिवाला और गाँवका प्रसिद्ध विद्यार्थी गिनते थे, इसलिये मैं अपनी प्रशंसाके कारण जानबूझकर ऐसे मंडलमें बैठकर अपनी चपलशक्ति दिखानेका प्रयत्न करता था। वे लोग कण्ठी बाँधनेके कारण बारबार मेरी हास्यपूर्वक टीका करते, तो भी मैं उनसे वादविवाद करता और उन्हें समझानेका प्रयत्न किया करता था।" धीरे धीरे राजचन्द्रजीको जैन लेगोंके प्रतिक्रमणसूत्र इत्यादि पुस्तकें पदनेको मिली। उनमें बहुत विनयपूर्वक जगत्के समस्त जीवोंसे मित्रताकी भावना व्यक्त की गई थी।' इससे उनकी प्रीति उनमें भी हो गई और पहलेमें भी रही। धीरे धीरे यह समागम बढ़ता गया। फिर भी आचार. विचार तो उन्हें वैष्णोके ही प्रिय थे, और साथ ही जगत्कर्ताकी भी श्रद्धा थी। यह राजचन्द्रजीकी तेरह वर्षकी वयचर्या है। इसके बाद वे लिखते हैं:-"मैं अपने पिताकी दुकानपर बैठने लगा था। अपने अक्षरोकी छटाके कारण कच्छ दरबारके महलमें लिखनेके लिये जब जब बुलाया जाता था, तब तब वहाँ जाता था। दुकानपर रहते हुए मैने नाना प्रकारकी मौज-मजायें की हैं, अनेक पुस्तकें पढ़ी है, राम आदिके चरित्रोंपर कवितायें रची है, सांसारिक तृष्णायें की हैं, तो भी किसीको मैंने कम अधिक भाव नहीं कहा, अथवा किसीको कम ज्यादा तोलकर नहीं दिया; यह मुझे बराबर याद आ रहा है"।' लघुवयमें तत्वज्ञानकी प्राप्ति राजचन्द्र विशेष पढ़े लिखे न थे। उन्होंने संस्कृत, प्राकृत आदिका कोई नियमित अभ्यास नहीं किया था; परंतु वे जैन आगोंके एक असाधारण वेत्ता और मर्मश थे। उनकी अयोशमशक्ति इतनी १६४-१७४-२३. २ बही. ३६४-१७५-२३. ४ राजचन्द्रजीने जोग्यता (योग्यता), दुलम (दुर्लभ ), सुजित (सर्जित), अभिलाषा (जिज्ञासाके स्थानपर), वृत्त (व्रत) आदि अनेक अशुद्ध शन्दोका अपने लेखोंमें प्रयोग किया है। इसके अलावा उन्होंने जो प्राकृत अथवा संस्कृतकी गाथाय आदि उद्धृत की है, वे भी बहुतसे स्थलोपर अशुद्ध है। इससे भी मालूम होता है कि राजचन्द्रजीका संस्कृत और प्राकृतका अभ्यास बहुत साधारण होना चाहिये. ५ एक जगह राजचन्द्र यशोविजयजीकी छपस्थ अवस्थाके विषयमें लिखते हैं:-" यशोविजयजीने ग्रंथ लिखते हुए इतना अखंड उपयोग रक्खा था कि वे प्रायः किसी जगह भी न भूले थे। तो भी छमस्थ अवस्थाके कारण डेसो गाथाके स्तवनमें ७ वै ठाणांगसूत्रकी जो शाखा दी है, वह मिलती नहीं । वह भीभगवतीजीके पांचवें शतकको लक्ष्य करके दी हुई मालूम होती है८६४-७८२-३३.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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