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________________ २६वाँ वर्ष ३४८ बम्बई, कार्तिक सुदी १९४९ जिनागममें इस कालकी जो ' दुःषम' संज्ञा कही है, वह प्रत्यक्ष दिखाई देता है; क्योंकि जो 'दुःखसे प्राप्त होने योग्य हो' उसे दुःषम कहते हैं । उस दुःखसे प्राप्त होने योग्य तो मुख्यरूपसे एक परमार्थ-मार्ग कहा जा सकता है और उस प्रकारकी स्थिति प्रत्यक्ष देखनेमें आती है । यद्यपि परमार्थमार्गको दुर्लभता सर्व कालमें है, परन्तु इस कालमें तो काल भी विशेषरूपसे दुर्लभताका कारणभूत है। यहाँ कहनेका यह प्रयोजन है कि प्रायः करके इस क्षेत्रमें वर्तमान कालमें पूर्वमें जिसने परमार्थमार्गका आराधान किया है, वह देह-धारण नहीं करता । और यह सत्य है, क्योंकि यदि उस प्रकारके जीवोंका समूह इस क्षेत्रमें देहधारीरूपसे रहता होता, तो उन्हें और उनके समागममें आनेवाले अनेक जीवोंको परमार्थ-मार्गकी प्राप्ति सुखपूर्वक हो सकी होती; और इससे फिर इस कालको दुःषम काल कहनेका कोई कारण न रह जाता । इस प्रकार पूर्वाराधक जीवोंकी अल्पता इत्यादि होनेपर भी वर्तमान कालमें यदि कोई भी जीव परमार्थ-मार्गका आराधन करना चाहे तो वह अवश्य ही आराधन कर सकता है, क्योंकि दुःखपूर्वक भी इस कालमें परमार्थ-मार्ग प्राप्त तो हो सकता है, ऐसा पूर्वज्ञानियोंका कथन है। वर्तमान कालमें सब जीवोंको मार्ग दुःखसे ही प्राप्त हो, ऐसा एकान्त अभिप्राय नहीं समझना चाहिये; परन्तु प्रायः करके मार्ग दुःखसे प्राप्त होता है ऐसा अभिप्राय समझने योग्य है। उसके बहुतसे कारण प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं: (१) प्रथम कारण यह है जैसा ऊपर बताया है कि प्रायः करके जीवकी पूर्वकी आराधकता नहीं है। (२) दूसरा कारण यह है कि उस प्रकारकी आराधकता न होनेके कारण वर्तमान देहमें उस आराधक-मार्गकी रीति भी पहिले न समझनेसे, अनाराधक-मार्गको ही आराधक-मार्ग मानकर जीवकी प्रवृत्ति होती है। (३) तीसरा कारण यह है कि प्रायः करके कहीं ही सत्समागम अथवा सद्गुरुका योग होता है, और वह भी कचित् ही होता है। (४) चौथा कारण यह है कि असत्संग आदि कारणोंसे जीवको सद्गुरु आदिकी पहिचान होना भी दुष्कर होता है, और प्रायः करके असद्गुरु आदिमें ही सत्य प्रतीति मानकर जीव वहीं रुक जाता है। (५) पाँचवा कारण यह है कि कचित् समागमका संयोग बने तो भी बल-वीर्य आदिकी इस प्रकारकी शिथिलता रहती है कि जीव तथारूप मार्गको ग्रहण नहीं कर सकता, अथवा उसे समझ नहीं सकता, अथवा असत्समागम आदिसे या अपनी कल्पनासे मिथ्यामें सत्यरूपसे प्रतीति कर बैठता है। प्रायः करके वर्तमानमें जीवने या तो शुष्क-क्रियाकी प्रधानतामें मोक्षमार्गकी कल्पना की है, अथवा बाब-क्रिया और शुद्ध व्यवहार-क्रियाके उत्थापन करनेमें मोक्ष-मार्गकी कल्पना की है, अथवा
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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