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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३४४, ३४५, ३४६ वीतराग पुरुषका मूलमार्ग, आप श्रीमद्ने अनंत कृपा करके मुझे प्रदान किया। इस अनंत उपकारके प्रत्युपकारका बदला चुकानेके लिये मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। फिर आप श्रीमत् कुछ भी लेनेके लिये सर्वथा निस्पृह हैं; इससे मैं मन, वचन और कायाकी एकाग्रतासे आपके चरणारविन्दमें नमस्कार करता हूँ। आपकी परमभक्ति और वीतराग पुरुषके मूल धर्मकी उपासना मेरे हृदयमें भवपर्यंत अखंडरूपसे जागृत रहा करे, इतना ही चाहता हूँ, यह सफल होओ! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः । विक्रम संवत् १९४८ ३४४ भववासी मूददशा. रविकै उदोत अस्त होत दिन दिन प्रति, अंजुलीकै जीवन ज्यौं जीवन घटतु है। कालकै प्रसत छिन छिन होत छीन तन, आरकै चलत मानो काठसौ कटतु है। एते परि मूरख न खोजै परमारथकौं, स्वारथकै हेतु भ्रम भारत ठटतु है। लगौ फिरै लोगनिसौं पग्यौ परै जोगनिसौं, विषैरस भोगनिसौं ने न हटतु है ॥ १॥ (२) जैसे मृग मत्त वृषादित्यकी तपत माहि, तृषावंत मृषाजल कारन अटतु है। तैसें भववासी मायाहीसौं हित मानि मानि, ठानि गनि भ्रम श्रम नाटक नटतु है। आगैको धुकत धाइ पीछे बछरा चवाइ जैसैं नैन हीन नर जेवरी बटतु है, तैसैं मूढ़ चेतन मुकत करतूति करै, रोवत हँसत फल खोवत खटतु है ॥२॥ (समयसार-नाटक) ३४५ बम्बई, १९४८ संसारमें ऐसा क्यां सुख है कि जिसके प्रतिबंधमें जीव रहनेकी इच्छा करता है ! बम्बई, १९४८ ३४६ किंबहुणा इह जह जह, रागदोसा विलिज्जति, तह तह पयहिअव्वं, एसा आणा जिणिदाणम् ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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