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________________ ३२० .......- -- --- श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३३३, ३३४ ३३३ बम्बई, भाद्रपद वदी ३ शुक्र. १९४८ यहाँसे लिखे हुए पत्रके तुम्हें मिलनेसे होनेवाले आनंदको निवेदन करते हुए, तुमने हालमें दीक्षासंबंधी वृत्तिके क्षोभ प्राप्त करनेके विषयमें जो लिखा, सो वह क्षोभ हालमें योग्य ही है। __क्रोध आदि अनेक प्रकारके दोषोंके क्षय हो जानेपर ही संसार-त्यागरूप दीक्षा लेना योग्य है, अथवा किसी महान् पुरुषके संयोगसे कोई योग्य प्रसंग आनेपर ऐसा करना योग्य है । इसके सिवाय किसी दूसरी प्रकारसे दीक्षाका धारण करना कार्यकारी नहीं होता; और जीव वैसी दूसरी प्रकारकी दीक्षारूप भ्रान्तिसे ग्रस्त होकर अपूर्व कल्याणको चूकता है; अथवा जिससे विशेष अन्तराय उपस्थित हो ऐसे योगका उपार्जन करता है। इसलिये हालमें तो तुम्हारे क्षोभको हम योग्य ही समझते हैं । यह हम जानते हैं कि तुम्हारी यहाँ समागममें आनेकी विशेष इच्छा है। फिर भी हालमें तो उस संयोगकी इच्छाका निरोध करना ही योग्य है; अर्थात् वह संयोग बनना असंभव है, और इस बातका खुलासा जो प्रथमके पत्रमें लिखा है, उसे तुमने पढ़ा ही होगा । इस तरफ आनेकी इच्छामें तुम्हारे बड़ों आदिका जो निरोध है, हालमें उस निरोधको उल्लंघन करनेकी इच्छा करना योग्य नहीं । मताग्रहमें बुद्धिका उदासीन करना ही योग्य है; और हालमें तो गृहस्थ धर्मको अनुसरण करना भी योग्य है । अपना हितरूप जानकर अथवा समझकर आरंभ-परिग्रहका सेवन करना योग्य नहीं । और इस परमार्थको बारम्बार विचार करके सदग्रंथका बाँचन, श्रवण, और मनन आदि करना योग्य है। निष्काम यथायोग्य. बम्बई, भाद्रपद वदी ८ बुध.१९४८ ॐनमस्कार जिस जिस कालमें जो जो प्रारब्ध उदय आये उस सबको सहन करते जाना, यही ज्ञानी पुरुषोंका सनातन आचरण है, और यही आचरण हमें उदय रहा करता है। अर्थात् जिस संसारमें स्नेह नहीं रहा, उस संसारके कार्यकी प्रवृत्तिका उदय रहता है, और उस उदयका अनुक्रमसे वेदन हुआ करता है । उदयके इस क्रममें किसी भी प्रकारकी हानि-वृद्धि करनेकी इच्छा उत्पन्न नहीं होता; और हम ऐसा मानते हैं कि ज्ञानी पुरुषोंका भी वही सनातन आचरण है; फिर भी जिसमें स्नेह नहीं रहा, अथवा स्नेह रखनेकी इच्छा निवृत्त हो गई है, अथवा निवृत्त होने आई है, ऐसे इस संसारमें कार्यरूपसेकारणरूपसे प्रवृत्ति करनेकी इच्छा नहीं रही, इस कारण आत्मामें निवृत्ति ही रहा करती है। ऐसा होनेपर भी जिससे उसके अनेक प्रकारके संग-प्रसंगमें प्रवृत्ति करना पड़े, ऐसे पूर्वमें किसी प्रारब्धका उपार्जन किया है, जिसे हम सम परिणामसे सहन करते हैं, परन्तु अभी भी कुछ समयतक वह उदयमें है, ऐसा जानकर कभी कभी खेद होता है, कभी कभी विशेष खेद होता है । और उस खेदका कारण विचारकर देखनसे तो वह परानुकंपारूप ही मालूम होता है । हालमें तो उस प्रारब्धको स्वाभाविक उदयके अनुसार वेदेन किये बिना अन्य इच्छा उत्पन्न नहीं होती, तथापि उस उदयमें हम दूसरे किसीको सुख, दुःख, राग, द्वेष, लाभ और अलाभके कारणरूपसे मालूम होते हैं; इस मालूम होनेमें लोक-प्रसंगकी विचित्र भ्रांति देखकर खेद होता है । जिस संसारमें साक्षी कर्ताके रूपसे माना
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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