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________________ ३१८ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३२८ निरंतर हमारे सत्संगमें रहनेके संबंधमें जो तुम्हारी इच्छा है, उस विषयमें हालमें कुछ लिख सकना असंभव है। तुम्हें मालूम हुआ होगा कि हमारा जो यहाँ रहना होता है वह उपाधिपूर्वक ही होता है, और वह उपाधि इस प्रकारसे है कि ऐसे प्रसंगमें श्रीतीर्थकर जैसे पुरुषके विषयमें भी कुछ निर्णय करना हो तो भी कठिन हो जाय, क्योंक अनादि कालसे जीवको केवल बाह्य प्रवृत्तिकी अथवा बाह्य निवृत्तिकी ही पहिचान हो रही है; और इसीके आधारसे ही वह सत्पुरुषको असत्पुरुष कल्पना करता आया है। कदाचित् किसी सत्संगके योगसे यदि जीवको ऐसा जाननेमें आया भी कि "यह सत्पुरुष है", तो भी फिर निरंतर उनके बाह्य प्रवृत्तिरूप योगको देखकर जैसा चाहिये वैसा निश्चय नहीं रहता, अथवा निरंतर वृद्धिंगत होता हुआ भक्तिभाव नहीं रहता, और कभी तो जीव संदेहको प्राप्त होकर वैसे सत्पुरुषके योगको त्यागकर, जिसकी केवल बाह्य निवृत्ति ही मालूम होती है, ऐसे असत्पुरुषका दृढ़ाग्रहपूर्वक सेवन करने लगता है । इसलिये जिस कालमें सत्पुरुषको निवृत्ति-प्रसंग रहता हो, वैसे प्रसंगमें उसके समीप रहना, यह जीवको हम विशेष हितकर समझते हैं-इस बातका इस समय इससे अधिक लिखा जाना असम्भव है । यदि किसी प्रसंगपर हमारा समागम हो तो उस समय तुम इस विषयमें पूछना, और उस समय यदि कुछ विशेष कहने योग्य प्रसंग होगा तो उसे कह सकना संभव है। यदि दीक्षा लेनेकी बारम्बर इच्छा होती हो तो भी हालमें उस प्रवृत्तिको शान्त ही करना चाहिये । तथा कल्याण क्या है, और वह किस तरह हो सकता है, इसका बारम्बार विचार और गवेषणा करनी चाहिए । इस क्रममें अनंत कालसे भूल होती आती है, इसलिये अत्यंत विचारपूर्वक ही पैर उठाना योग्य है। ३२८ बम्बई, भाद्रपद सुदी ७ सोम. १९४८ उदय देखकर उदास नहीं होना. संसारका सेवन करनेके आरंभ कालसे लगाकर आजतक तुम्हारे प्रति जो कुछ अविनय, अभक्ति, और अपराध आदि दोष उपयोगपूर्वक अथवा अनुपयोगसे हुए हों, उन सबकी अत्यंत नम्रतासे क्षमा चाहता हूँ। श्रीतीर्थकरने जिसे धर्म-पर्व गिनने योग्य माना है, ऐसी इस वर्षकी संवत्सरी व्यतीत हुई। किसी भी जीवके प्रति किसी भी प्रकारसे किसी भी कालमें अत्यंत अल्प दोष भी करना योग्य नहीं, ऐसी बात जिसकेद्वारा परमोत्कृष्टरूपसे निश्चित हुई है, ऐसे इस चित्तको नमस्कार करते हैं; और इस वाक्यको एक मात्र स्मरण करने योग्य ऐसे तुम्हें ही लिखा है। इस वाक्यको तुम निःशंकरूपसे जानते हो। " तुम्हें रविवारको पत्र लिखूगा" ऐसा लिखा था परन्तु नहीं लिख सका, यह क्षमा करने योग्य है । तुमने व्यवहार-प्रसंगके विवेचनाके संबंधमें जो पत्र लिखा था, उस विवेचनाको चित्तमें उतारने और विचारनेकी इच्छा थी, परन्तु वह इच्छा चित्तके आत्माकार हो जानेसे निष्फल हो गई है; और इस समय कुछ लिखना बन सके, ऐसा मालूम नहीं होता; इसके लिये अत्यंत नम्रतापूर्वक क्षमा माँगकर इस पत्रको समाप्त करता हूँ। . सहजखरूप.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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