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________________ ३११ पत्र ३२३] विविध पत्र आदि संग्रह-२५ वाँ वर्ष दूसरी-दूसरी चेष्टायें कल्पित कर लेते हैं, और फिरसे ऐसा संयोग मिलनेपर वैसी विमुखता प्रायः करके और बलवान हो जाती है । ऐसा न होने देनेके लिये, और इस भवमें यदि उन्हें ऐसा संयोग अजानपनेसे मिल भी जाय तो वे कदाचित् श्रेयको प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी धारणा रखकर, अंतरंगमें ऐसे सत्पुरुषको प्रगट रखकर बाह्यरूपसे गुप्त रखना ही अधिक योग्य है । वह गुप्तपना कुछ माया-कपट नहीं है, क्योंकि इस तरह बर्ताव करना माया-कपटका हेतु नहीं है। वह भविष्य-कल्याणका ही हेतु है। यदि ऐसा हो तो वह माया-कपट नहीं होता, ऐसा मानते हैं। जिसे दर्शनमोहनीय उदयमें बलवानरूपसे है, ऐसे जीवको अपनेद्वारा किसी प्रकार सत्पुरुष आदिके विषयमें अवज्ञापूर्वक बोलनेका अवसर प्राप्त न हो, इतना उपयोग रखकर चलना, यह उसका और उपयोग रखनेवाले दोनोंके कल्याणका कारण है। ___ ज्ञानी पुरुषके विषयमें अवज्ञापूर्वक बोलना, तथा इस प्रकारके प्रसंगमें उत्साही होना, यह जीवके अनंत संसारके बढ़नेका कारण है, ऐसा तीर्थकर कहते हैं । उस पुरुषके गुणगान करना, उस प्रसंगमें उत्साही होना, और उसकी आज्ञामें सरल परिणामसे परम उपयोग-दृष्टिपूर्वक रहना, इसे तीर्थकर अनंत संसारका नाश करनेवाला कहते हैं, और ये वाक्य जिनागममें हैं। बहुतसे जीव इन वाक्योंको श्रवण करते होंगे, फिर भी जिन्होंने प्रथम वाक्यको निष्फल और दूसरे वाक्यको सफल किया हो, ऐसे जीव तो क्वचित् ही देखनेमें आते हैं। जीवने अनंतबार प्रथम वाक्यको सफल और दूसरे वाक्यको निष्फल किया है । उस तरहके परिणाममें आनेमें उसे बिलकुल भी समय नहीं लगता, क्योंकि अनादि कालसे उसकी आत्मामें मोह नामकी मदिरा व्याप्त हो रही है। इसलिये बारम्बार विचारकर वैसे वैसे प्रसंगमें यथाशक्ति, यथाबल और वीर्यपूर्वक ऊपर कहे अनुसार आचरण करना योग्य है। कदाचित् ऐसा मान लो कि ' इस कालमें क्षायिक समकित नहीं होता,' ऐसा जिन आगममें स्पष्ट लिखा है । अब उस जीवको विचार करना योग्य है कि 'क्षायिक समकितका क्या अर्थ होता है ?' जिसके एक नवकारमंत्र जितना भी व्रत-प्रत्याख्यान नहीं होता, फिर भी वह जीव अधिकसे अधिक तीन भवमें और नहीं तो उसी भवमें परम पदको प्राप्त करता है, ऐसी महान् आश्चर्य करनेवाली उस समकितकी व्याख्या है। फिर अब ऐसी वह कौनसी दशा समझनी चाहिये कि जिसे क्षायिक समकित कहा जाय ! ' यदि तीर्थंकर भगवान्की दृढ़ श्रद्धा ' का नाम क्षायक समकित मानें तो उस श्रद्धाको कैसी समझनी चाहिये ! और जो श्रद्धा हम समझते हैं वह तो निश्चयसे इस कालमें होती ही नहीं । यदि ऐसा मालूम नहीं होता कि अमुक दशा अथवा अमुक श्रद्धाको क्षायिक समकित कहा है, तो फिर हम कहते हैं कि जिनागमके शब्दोंका केवल यही अर्थ हुआ कि क्षायिक समकित होता ही नहीं । अब यदि ऐसा समझो कि ये शब्द किसी दूसरे आशयसे कहे गये हैं, अथवा किसी पीछेके कालके विसर्जन दोषसे लिख दिये गये हैं, तो जिस जीवने इस विषयमें आग्रहपूर्वक प्रतिपादन किया हो, वह जीव कैसे दोषको प्राप्त होगा, यह सखेद करुणापूर्वक विचारना योग्य है । ___ हालमें जिन्हें जिनसूत्रोंके नामसे कहा जाता है, उन सूत्रोंमें 'क्षायिक समकित नहीं है' ऐसा स्पष्ट नहीं लिखा है, तथा परम्परागत और दूसरे भी बहुतसे ग्रन्थोंमें यह बात चली आती है, ऐसा हमने
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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