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________________ पत्र ३२२] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष ३०९ ३२२ बम्बई, श्रावण वदी १९४८ निरन्तर ही आत्मस्वरूप रहा करता है, जिसमें प्रारब्धोदयके सिवाय दूसरे किसी भी अवकाशका योग नहीं है। इस उदयमें कभी परमार्थ-भाषा कहनेका योग उदय आता है, कभी परमार्थ-भाषा लिखनेका योग उदय आता है, और कभी परमार्थ-भाषा समझानेका योग उदय आता है । हालमें तो वैश्य-दशाका योग विशेषतासे रहा करता है; और जो कुछ उदयमें नहीं आता उसे हालमें तो कर सकनेकी असमर्थता ही है । जीवितव्यको केवल उदयाधीन करनेसे-हो जानेसे-विषमता दूर हो गई है। तुम्हारे प्रति, अपने प्रति और दूसरोंके प्रति किसी भी तरहका वैभाविक भाव प्रायः उदित नहीं होता, और इसी कारण पत्र आदि कार्य करनेरूप परमार्थ-भाषा-योगसे अवकाश प्राप्त नहीं है, ऐसा लिखा है; यह ऐसा ही है । पूर्वोपार्जित स्वाभाविक उदयके अनुसार देहकी स्थिति है; आत्मभावसे उसका अवकाश अत्यंत अभावरूप है। ___ उस पुरुषके स्वरूपको जानकर उसकी भक्तिके सत्संगका महान् फल होता है, जो केवल चित्रपटके ध्यानसे नहीं मिलता। जो उस पुरुषके स्वरूपको जानता है, उसे स्वाभाविक अत्यंत शुद्ध आत्मस्वरूप प्रगट होता है। इसके प्रगट होनेके कारणभूत उस पुरुषको जानकर सब प्रकारकी असंसार-संसार-कामना परित्यागरूप करके-परित्याग करके-शुद्ध भक्तिसे उस पुरुष-स्वरूपका विचार करना योग्य है । जैसा ऊपर कहा है, चित्रपटकी प्रतिमाके हृदय-दर्शनसे महान् फल होता है-यह वाक्य विसंवादरहित समझकर लिखा है। मन महिलानुं वहाला उपरे, बीजां काम करत रे. इस पदके विस्तृत अर्थको आत्म-परिणामरूप करके उस प्रेम-भक्तिको सत्पुरुषमें अत्यंतरूपसे करना योग्य है, ऐसा सब तीर्थंकरोंने कहा है, वर्तमानमें कहते हैं, और भविष्यमें भी ऐसा ही कहेंगे। उस पुरुषसे प्राप्त उसकी आत्मपद्धति-सूचक भाषामें, जिसका विचार-ज्ञान विक्षेपरहित हो गया है, ऐसा पुरुष, उस पुरुषको आत्मकल्याणके लिये जानकर, वह श्रुत (श्रवण) धर्ममें मन ( आत्मा) को धारण करता है-उस रूपसे परिणाम करता है । वह परिणाम किस तरह करना योग्य है, इस बातको 'मन महिला, वहाला उपरे, बीजां काम करत रे' यह दृष्टांत देकर समर्थन किया है। ठीक तो इस तरह घटता है कि यद्यपि पुरुषके प्रति स्त्रीका काम्य-प्रेम संसारके अन्य भावोंकी अपेक्षा शिरोमणि है, फिर भी उस प्रेमसे अनंत गुणविशिष्ट प्रेम, सत्पुरुषसे प्राप्त आत्मरूप श्रुतधर्ममें ही करना योग्य है, परन्तु इस प्रेमका स्वरूप जहाँ दृष्टांतको उल्लंघन कर जाता है, वहाँ ज्ञानका अवकाश नहीं है, ऐसा समझकर ही, परिसीमाभूत श्रुतधर्मके लिये भर्तारके प्रति स्त्रीके काम्य-प्रेमका दृष्टांत दिया है । यहाँ दृष्टांत सिद्धांतकी चरम सीमातक नहीं पहुँचता; इसके आगे वाणी पीछेके ही परिणामको पाकर रह जाती है, और आत्म-व्यक्तिसे ऐसा मालूम होता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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