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________________ २९६ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३०४ (२) सब प्रकारसे उपाधि-योगको तो निवृत्त करना ही योग्य है; तथापि यदि उस उपाधि-योगकी सत्संग आदिके लिये ही इच्छा की जाती हो, तथा पिछली चित्त-स्थिति समभावसे रहती हो तो उस उपाधि-योगमें प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर है। ____ अप्रतिबद्ध प्रणाम. ३०४ बम्बई, वैशाख १९४८ चाहे कितनी ही विपत्तियाँ क्यों न पड़ें, तथापि ज्ञानीद्वारा सांसारिक फलकी इच्छा करनी योग्य नहीं. उदय आये हुए अंतरायको सम-परिणामसे वेदन करना योग्य है, विषम-परिणामसे वेदन करना योग्य नहीं। तुम्हारी आजीविकासंबंधी स्थिति बहुत समयसे मालूम है; यह पूर्वकर्मका योग है। जिसे यथार्थ ज्ञान है, ऐसा पुरुष अन्यथा आचरण नहीं करता; इसलिये तुमने जो आकुलताके कारण इच्छा प्रगट की है, उसे निवृत्त करना ही योग्य है। ___ यदि ज्ञानीके पास सांसारिक वैभव हो तो भी मुमुक्षुको उसकी किसी भी प्रकारसे इच्छा करना योग्य नहीं है । प्रायः करके यदि ज्ञानीके पास ऐसा वैभव होता है तो वह मुमुक्षुकी विपत्ति दूर करनेके लिये उपयोगी होता है । पारमार्थिक वैभवसे ज्ञानी, मुमुक्षुको सांसारिक फल देनेकी इच्छा नहीं करता; क्योंकि ज्ञानी अकर्त्तव्य नहीं करते ।। हम जानते हैं कि तुम्हारी इस प्रकारकी स्थिति है कि जिसमें धीरज रहना कठिन है; ऐसा होनेपर भी धीरजमें एक अंशकी भी न्यूनता न होने देना, यह तुम्हारा कर्त्तव्य है; और यही यथार्थ बोध पानेका मुख्य मार्ग है। ___ हालमें तो हमारे पास ऐसा कोई सांसारिक साधन नहीं है कि हम उस मार्गसे तुम्हारे लिये धीरजके कारण हो सकें, परन्तु ऐसा प्रसंग लक्षमें रक्खेंगे; बाकीके दूसरे प्रयत्न करने योग्य ही नहीं हैं। किसी भी प्रकारका भविष्यका सांसारिक विचार छोड़कर वर्तमानमें समतापूर्वक प्रवृत्ति करनेका दृढ़ निश्चय करना ही तुम्हें योग्य है; भविष्यमें जो होना होगा, वह होगा, वह तो अनिवार्य है, ऐसा मानकर परम पुरुषार्थकी ओर सन्मुख होना ही योग्य है । किसी प्रकारसे भी लोकलजारूपी इस भयके स्थान ऐसे भविष्यको विस्मरण करना ही योग्य है । उसकी चिंतासे परमार्थका विस्मरण होता है; और ऐसा होना महा आपत्तिरूप है; इसलिये इतना ही बारम्बार विचारना योग्य है कि जिससे वह आपत्ति न आये । बहुत समयसे आजीविका और लोकलज्जाका खेद तुम्हारे अंतरमें इकट्ठा हो रहा है, इस विषयमें अब तो निर्भयपना ही अंगीकार करना योग्य है । फिरसे कहते हैं कि यही कर्तव्य है । पथार्थ बोधका यही मुख्य मार्ग है । इस स्थलमें भूल खाना योग्य नहीं है। लज्जा और आजीविका मिथ्या हैं । कुटुम्ब आदिका ममत्व रक्खोगे तो भी जो होना होगा
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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