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________________ २९४ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३०२ जिसे दोष देना नहीं आता, ऐसे जीवकी ज्ञानीके आश्रयसे धीरजपूर्वक चलनेसे आपत्तिका नाश होता है; अथवा आपत्ति बहुत मंद पड़ जाती है, ऐसा मानते हैं; तथापि इस कालमें ऐसी धीरज रहना बहुत ही कठिन है, और इस कारण जैसा कि ऊपर कहा है, बहुतबार ऐसा परिणाम आनेसे रुक जाता है । हमें तो ऐसी जंजालमें उदासीनता रहती है। हमारे भीतर विद्यमान परम वैराग्य व्यवहार-विषयमें मनको कभी भी नहीं लगने देता, और व्यवहारका प्रतिबंध तो सारे दिन ही रखना पड़ता है। हालमें तो ऐसा उदय चल रहा है । इससे मालूम होता है कि वह भी सुखका ही हेतु है । __आज पाँच मास हुए तबसे हम जगत् , ईश्वर और अन्यभाव-इन सबसे उदासीनरूपसे रहते हैं, तथापि यह बात गंभीर होनेके कारण तुम्हें नहीं लिखी । तुम जिस प्रकारसे ईश्वर आदिके विषयमें श्रद्धाशील हो, तुम्हारे लिये उसी तरह प्रवृत्ति करना कल्याणकारक है । हमें तो किसी भी तरहका भेदभाव उत्पन्न न होनेके कारण सब कुछ जंजालरूप ही है; अर्थात् ईश्वर आदि तकमें उदासीनता रहती है । हमारे इस प्रकारके लिखनेको पढ़कर तुम्हें किसी प्रकारसे संदेहमें पड़ना योग्य नहीं । हालमें तो हम ' अत्ररूप ' से रहते हैं, इस कारण किसी प्रकारकी ज्ञान-वार्ता भी नहीं लिख सकते; परन्तु मोक्ष तो हमें सर्वथा निकटरूपसे ही है। यह बात तो शंकारहित है। हमारा चित्त आत्माके सिवाय किसी दूसरे स्थलपर प्रतिबद्ध होता ही नहीं; क्षणभरके लिये भी अन्य-भावमें स्थिर नहीं रहता--स्वरूपमें ही स्थिर रहता है । ऐसा जो हमारा आश्चर्यकारक स्वरूप है, वह हालमें तो कैसे भी कहा नहीं जाता । बहुत महिने बीत जानेके कारण तुम्हें लिखकर ही संतोष माने लेते हैं । नमस्कार बाँचना । हम भेदरहित हैं। ३०२ बम्बई, वैशाख वदी १३ भौम. १९४८ जिसे निरंतर ही अभेद-ध्यान रहा करता है, ऐसे श्रीबोध-पुरुषका यथायोग्य बाँचना । यहाँ भावविषयक तो समाधि ही रहती ही है, और बाह्यविषयक उपाधि-योग रहता है; तुम्हारे आये हुए तीनों पत्र प्राप्त हुए हैं, और इसी कारण प्रत्युत्तर नहीं लिखा । इस कालकी ऐसी विषमता है कि जिसको बहुत समयतक सत्संगका सेवन हुआ हो, तो ही जीवविषयक लोक-भावना कम हो सकती है, अथवा लयको प्राप्त हो सकती है। लोक-भावनाके आवरणके कारण ही जीवको परमार्थ भावनाके प्रति उल्लास-परिणति नहीं होती, और जबतक यह नहीं होती तबतक लोक-सहवास भवरूप ही होता है। ___जो निरन्तर सत्संगके सेवन करनेकी इच्छा करता है ऐसे मुमुक्षु जीवको, जबतक उस योगका विरह रहता है, तबतक दृढ़ भावसे उस भावनाकी इच्छासहित प्रत्येक कार्य करते हुए विचारपूर्वक प्रवृत्ति करके अपनेको लघु मानकर, अपने देखनेमें आनेवाले दोषकी निवृत्ति चाह करके, सरलतासे बर्ताव करते रहना योग्य है; और जिस कार्यके द्वारा उस भावनाकी उन्नति हो, ऐसी ज्ञान-वार्ता अथवा ज्ञान-लेख अथवा ग्रन्थका कुछ कुछ विचार करते रहना योग्य है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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