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________________ पत्र २७९] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष २८५ तुम्हारी भूमिका है। अर्थात् उस भूमिका ( गुणस्थानक ) के विचारनेसे किसी प्रकारसे तुम्हें यथार्थ धीरज प्राप्त होना संभव है। __ यदि किसी भी प्रकारसे अपने आप मनमें कुछ ऐसा संकल्प कर लें, कि ऐसी दशामें आ जॉय; अथवा इस प्रकारका ध्यान करें तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जायगी; तो वह संकल्प करना प्रायः (ज्ञानीका स्वरूप समझनेपर) मिथ्या है, ऐसा मालूम होता है। ___ यथार्थ-बोध किसे कहते हैं, इसका विचार करके अनेक बार विचार करके-ज्ञानियोंने अपनी कल्पना निवृत्त करनेका ही विधान किया है । अध्यात्मसारका बाँचन, श्रवण चालू है-यह अच्छा है । ग्रन्थके अनेक बार बाँचनेकी चिन्ता नहीं, परन्तु जिससे किसी प्रकार उसका दीर्घकालतक अनुप्रेक्षण रहा करे, ऐसा करना योग्य है । परमार्थ प्राप्त होनेके लिये किसी भी प्रकारकी आकुलता-व्याकुलता रखनेको 'दर्शन' परिषह कहते हैं । यह परिषह उत्पन्न हो तो सुखकारक है; परन्तु यदि उसको धीरजसे वेदन किया जाय तो उसमेंसे दर्शनकी उत्पत्ति होना संभव है। तुम्हें किसी भी प्रकारसे दर्शनपरिषह है, ऐसा यदि तुम्हें लगता हो तो उसका धीरजसे वेदन करना ही योग्य है; ऐसा उपदेश है । हम जानते हैं कि तुम्हें प्रायः दर्शनपरिषह है । हालमें तो किसी भी प्रकारकी आकुलताके बिना वैराग्य-भावनासे-वीतराग-भावसे-ज्ञानीमें परम भक्तिभावसे-सत्शास्त्र आदि और सत्संगका परिचय करना ही योग्य है। परमार्थके संबंध मनसे किये हुए संकल्पके अनुसार किसी भी प्रकारकी इच्छा नहीं करनी चाहिये। अर्थात् किसी भी प्रकारके दिव्य-तेजयुक्त पदार्थ इत्यादि दिखाई देने आदिकी इच्छा, मनःकल्पित ध्यान आदि, इन सब संकल्पोंकी जैसे बने तैसे निवृत्ति करना चाहिये। शांतसुधारसमें कही हुई भावना, और अध्यात्मसारमें कहा हुआ आत्मनिश्चयाधिकार फिर फिरसे मनन करने योग्य हैं । इन दोनोंमें विशेषता मानना । आत्मा है, यह जिस प्रमाणसे जाना जाय; आत्मा नित्य है, यह जिस प्रमाणसे जाना जाय; आत्मा कर्ता है, यह जिस प्रमाणसे जाना जायआत्मा भोक्ता है, यह जिस प्रमाणसे जाना जाय; मोक्ष है यह जिस प्रमाणसे जाना जाय; और उसका उपाय है, यह जिस प्रमाणसे जाना जाय-वह बात बारम्बार विचारने योग्य है । अध्यात्मसार अथवा दूसरे किसी भी ग्रन्थमें यह बात हो तो विचारनेमें बाधा नहीं है । कल्पनाका त्याग करके ही विचारना योग्य है । जनकविदेहीकी बात हालमें जाननेसे तुम्हें कोई फल न होगा। . २७९ बम्बई, माघ १९४८ भ्रांतिके कारण सुखरूप भासित होनेवाले इन संसारी प्रसंगों और प्रकारोंमें जबतक जीवको प्रेम रहता है, तबतक जीवको अपने स्वरूपका भासित होना असंभव है; और सत्संगका माहात्म्य भी याथातथ्यरूपसे भासित होना असंभव है। जबतक यह संसारगत प्रेम असंसारगत प्रेमरूप
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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