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________________ २७६ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र २६३, २६४ २६३ बम्बई, पौष सुदी ७ गुरु. १९४८ ज्ञानीकी आत्माका अवलोकन करते हैं; और वैसे ही हो जाते हैं. आपकी स्थिति लक्षमें है । अपनी इच्छा भी लक्षमें है। गुरु-अनुग्रहवाली जो बात लिखी है, वह भी सत्य है। कर्मका उदय भोगना पड़ता है, यह भी सत्य ही है । आपको पुनः पुनः अतिशय खेद होता है, यह भी जानते हैं। आपको वियोगका असह्य ताप रहता है, यह भी जानते हैं । बहुत प्रकारसे सत्संगमें रहना योग्य है, ऐसा मानते हैं, तथापि हालमें तो ऐसा ही सहन करना योग्य माना है। चाहे जैसे देश-कालमें यथायोग्य रहना-यथायोग्य रहनेकी ही इच्छा करना-यही उपदेश है । तुम अपने मनकी कितनी भी चिन्ता क्यों न लिखो तो भी हमें तुम्हारे ऊपर खेद नहीं होगा। ज्ञानी अन्यथा नहीं करता, अन्यथा करना उसे सूझता भी नहीं; फिर दूसरे उपायकी इच्छा भी नहीं करना, ऐसा निवेदन है। कोई इस प्रकारका उदय है कि अपूर्व वीतरागता होनेपर भी व्यापारसंबंधी कुछ प्रवृत्ति कर सकते हैं, तथा दूसरी खाने-पीनेकी प्रवृत्ति मुश्किलसे कर सकते हैं। मनको कहीं भी विश्राम नहीं मिलता; प्रायः करके वह यहाँ किसीके समागमकी इच्छा नहीं करता । कुछ लिखा नहीं जा सकता। अधिक परमार्थ-वाक्य बोलनेकी इच्छा नहीं होती । किसीके पूँछे हुए प्रश्नोंके उत्तर जाननेपर भी लिख नहीं सकते; चित्तका भी अधिक संग नहीं है; आत्मा आत्म-भावसे रहती है । प्रति समयमें अनंत गुणविशिष्ट आत्मभाव बढ़ता जाता हो, ऐसी दशा है । जो प्रायः समझने में नहीं आती अथवा इसे जान सकें ऐसे पुरुषका समागम नहीं है । श्रीवर्धमानकी आत्माको स्वाभाविक स्मरणपूर्वक प्राप्त हुआ ज्ञान था, ऐसा मालूम होता है। पूर्ण वीतरागका-सा बोध हमें स्वाभाविक ही स्मरण हो आता है, इसीलिये ००० हमने ०००० लिखा था कि तुम ‘पदार्थ ' को समझो । ऐसा लिखनेमें और कोई दूसरा अभिप्राय न था । २६४ बम्बई, पौष सुदी ११ सोम. १९४८ स्वरूप स्वभावमें है । ज्ञानीके चरण-सेवनके बिना अनन्तकालतक भी प्राप्त न हो सके, ऐसा वह दुर्लभ भी है । आत्म-संयमका स्मरण करते रहते हैं। यथारूप वीतरागताकी पूर्णताकी इच्छा करते हैं। हम और तुम हालमें प्रत्यक्षरूपसे वियोगमें रहा करते हैं । यह भी पूर्व-निबंधनका कोई बड़ा प्रबंध उदयमें होनेके ही कारणसे हुआ मालूम होता है । हम कभी कोई काव्य, पद अथवा चरण लिखकर भेजें और यदि आपने उन्हें कहीं अन्यत्र बाँचा अथवा सुना भी हो, तो भी उन्हें अपूर्व ही समझें । हम स्वयं तो हालमें यथाशक्य ऐसा कुछ करनेकी इच्छा करने जैसी दशामें नहीं हैं। श्रीबोधस्वरूपका यथायोग्य.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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