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________________ --- पत्र २१५, २१६] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २५३ जिनमें सत्संग आदिके माहात्म्यका वर्णन किया हो ऐसी जो पुस्तकें, पद या काव्य हों, उन्हें बारम्बार मनन करना और उन्हें स्मृतिमें रखना उचित समझना । ___ अभी हालमें यदि जैनसूत्रोंके पढ़नेकी इच्छा हो तो उसे निवृत्त करना ही ठीक है, क्योंकि उनके ( जैनसूत्रोंके) पढ़ने और समझनेमें अधिक योग्यता होनी चाहिये; उसके बिना यथार्थ फलकी प्राप्ति नहीं होती; तथापि यदि दूसरी पुस्तकें न हों तो " उत्तराध्ययन” अथवा " सूयगडं" के दूसरे अध्ययनको पढ़ना और विचारना । २१५ बम्बई, आषाद सुदी १ सोम. १९४७. __ जबतक गुरुके द्वारा भक्तिका परम स्वरूप समझा नहीं गया, और उसकी प्राप्ति नहीं हुई, तबतक भक्तिमें प्रवृत्ति करनेसे अकाल और अशुचि दोष होता है । अकाल और अशुचिका महान् विस्तार है, तो भी संक्षेपमें लिखा है । ' एकांतमें ' प्रभातका प्रथम पहर यह सेव्य-भक्तिके लिये योग्य काल है। स्वरूप-चितवन भक्ति तो सभी कालोंमें सेव्य है । सर्व प्रकारकी शुचियोंका कारण एक केवल व्यवस्थित मन है । बाह्य मल आदिसे रहित तन और शुद्ध स्पष्ट वाणी, इसीका नाम शुचि है। २१६ बम्बई, आषाढ़ सुदी ८ भौम. १९४७. निशंकतासे निर्भयता उत्पन्न होती है और उससे नि:संगता प्राप्त होती है प्रकृतिके विस्तारकी दृष्टिसे जीवके कर्म अनंत प्रकारकी विचित्रता लिये हुए हैं; और इस कारण दोषोंके प्रकार भी अनन्त ही भासित होते हैं; परन्तु सबसे बड़ा दोष तो यह है कि जिसके कारण 'तीन मुमुक्षुता' उत्पन्न नहीं होती, अथवा 'मुमुक्षुता' ही उत्पन्न नहीं होती। प्रायः करके मनुष्यात्मा किसी न किसी धर्म-मतमें होती ही है, और इस कारण उसे उसी धर्म-मतके अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिये-ऐसा वह मानती है; परन्तु इसका नाम मुमुक्षुता नहीं है। मुमुक्षुता तो उसका नाम है कि सब प्रकारकी मोहासक्ति छोड़कर केवल एक मोक्षके लिये ही यत्न करना; और तीन मुमुक्षुता उसे कहते हैं कि अनन्य प्रेमपूर्वक प्रतिक्षण मोक्षके मार्गमें प्रवृत्ति करना। तीव्र मुमुक्षुताके विषयमें यहाँ कुछ कहना नहीं है; परन्तु मुमुक्षुताके विषयमें ही कहना है। अपने दोष देखनमें निष्पक्षपात होना, यही मुमुक्षुताके उत्पन्न होनेका लक्षण है, और इसके कारण स्वच्छंदका नाश होता है। जहाँ स्वच्छंदकी थोड़ी अथवा बहुत हानि हुई है, वहाँ उतनी ही बोध-बीजके योग्य भूमिका तैयार होती है। जहाँ स्वच्छन्द प्रायः दब जाता है, वहाँ फिर 'मार्गप्राप्ति' को रोक रखनेवाले केवल तीन कारण ही मुख्यरूपसे होते हैं, ऐसा हम समझते हैं।. इस लोककी अल्प भी सुखेच्छा, परम विनयकी न्यूनता, और पदार्थका अनिर्णय, इन सब कारणोंके दूर करनेके बीजको फिर कभी कहेंगे। उसके पहिले उन्हीं कारणोंको विस्तारसे कहते हैं। इस लोककी अल्प भी मुखेच्छा, यह बात बहुत करके तीव्र मुमुक्षुताकी उत्पति होनेके पहिले
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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