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________________ २४६ श्रीमद राजचन्द्र [पत्र १९९ नेके लिये जीवको योग्य होना प्रशस्त है। उस योग्य होनेमें बाधा करनेवाला यह मायाप्रपंच है, जिसका परिचय ज्यों ज्यों कम हो वैसा आचरण किये बिना योग्यताका आवरण भंग नहीं होता । पग पगपर भयपूर्ण अज्ञान-भूमिमें जीव बिना विचारे ही करोडों योजन तक चलता चला जाता है; वहाँ योग्यताका अवकाश कहाँसे मिल सकता है ? ऐसा न होनेके लिए, किये हुए कार्यके उपद्रवको जैसे बने वैसे शान्त करके (इस विषयकी) सर्व प्रकारसे निवृत्ति करके योग्य व्यवहारमें आनेका प्रयत्न करना ही उचित है। यदि सर्वथा लाचारी हो तो व्यवहार करना चाहिये, किन्तु उस व्यवहारको प्रारब्धका उदय समझकर केवल निस्पृह-बुद्धिसे करना चाहिये । ऐसे व्यवहारको ही योग्य व्यवहार मानना । यहाँ ईश्वरानुग्रह है। ( २ ) कार्यरूपी जालमें आ फँसनेके बाद प्रायः प्रत्येक जीवको पश्चात्ताप होता है; कार्यके जन्म होनेके पहिले ही विचार हो जाय और वह दृढ़ रहे, ऐसा होना बहुत ही कठिन है-ऐसा जो विचक्षण मनुष्य कहते हैं वह यथार्थ ही है । पश्चात्ताप करनेसे कार्यका आया हुआ परिणाम अन्यथा नहीं होता, किन्तु किसी ऐसे ही दूसरे प्रसंगमें उससे उपदेश अवश्य मिल सकता है । ऐसा ही होना योग्य था, ऐसा मानकर शोकका परित्याग करना और केवल मायाकी प्रबलताका विचार करना यही उत्तम है। मायाका स्वरूप ही ऐसा है कि इसमें 'सत्' प्राप्त ज्ञानी पुरुषको भी रहना मुश्किल है, तो फिर जिसमें अभी मुमुक्षुताके अंशोंकी भी मलिनता है, ऐसे पुरुषको उसके स्वरूप में स्थिर रहना अत्यन्त कठिन, संभ्रममें डालनेवाला एवं चलायमान करनेवाला हो, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है-ऐसा जरूर मानना । १९९ बम्बई, चैत्र सुदी ९ शुक्र. १९४७. जम्बूस्वामीका दृष्टान्त प्रसंगको प्रबल करनेवाला और बहुत आनन्दकारक लिखा गया है । लुटा देनेकी इच्छा होनेपर भी, चोरोंद्वारा अपहरण हो जानेके कारण जम्बूका त्याग है, ऐसी लोक-प्रवाहकी मान्यता परमार्थके लिये कलंकरूप है, ऐसा जो महात्मा जंबूका आशय था वह सत्य था। ___ इस प्रकार यहाँ इस बातका अन्त करके अब आपको प्रश्न होगा कि चित्तकी मायाके प्रसंगोंमें आकुल-व्याकुलता हो, और उसमें आत्मा चिंतित रहा करे, क्या यह ईश्वर-प्रसन्नताका मार्ग है ? तथा अपनी बुद्धिसे नहीं, किन्तु लोक-प्रवाहके कारण भी कुटुम्ब आदिके कारणसे शोकयुक्त होना, क्या यह वास्तविक मार्ग है ! क्या हम आकुल होकर कुछ कर सकते है ! और यदि कर सकते हैं तो फिर ईश्वरपर विश्वास रखनेका क्या फल हुआ ! निस्पृह पुरुष क्या ज्योतिष जैसे कल्पित विषयको सांसारिक प्रसंगमें लक्ष करते होंगे ! हालमें तो हमारी यही इच्छा है कि आप, हम ज्योतिष जानते हैं अथवा कुछ कर सकते हैं, ऐसा न मानें तो ठीक हो।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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