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________________ २४२ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र १९२, १९३ सकता । भक्तिविषयक प्रश्नोंका उत्तर प्रसंग पाकर लिखूगा । हमने आपको जिस विस्तारपूर्ण पत्रमें " अधिष्ठान " के संबंधमें लिखा था, वह आपसे भेंट होनेपर ही समझमें आ सकता है । ___" अधिष्ठान " अर्थात् जिसमेंसे वस्तु उत्पन्न हुई हो, जिसमें वह स्थिर रहे, और जिसमें वह लय पावे । " जगत्का अधिष्ठान" का अर्थ इसी व्याख्याके अनुसार ही समझना । जैनदर्शनमें चैतन्यको सर्वव्यापक नहीं कहा है । इस विषयमें आपके जो कुछ भी लक्षमें हो उसे लिखें। १९२ बम्बई, फाल्गुन वदी ११ रवि. १९४७ ज्योतिषको कल्पित कहनेका यही हेतु है कि यह विषय पारमार्थिक ज्ञानकी अपेक्षासे कल्पित ही है; और पारमार्थिक ही सत्य है, और उसीकी ही रटन लगी हुई है। हालमें ईश्वरने मेरे सिरपर उपाधिका बोझा विशेष रख रक्खा है; ऐसे करनेमें उसकी इच्छाको सुखरूप ही मानता हूँ। जैनग्रंथ इस कालको पंचमकालके नामसे कहते हैं, और पुराणग्रंथ इसे कलिकालके नामसे कहते हैं। इस तरह इस कालको कठिन ही काल कहा गया है। उसका यही हेतु है कि इस कालमें जीवको 'सत्संग और सत्शास्त्र' का संयोग मिलना अति कठिन है, और इसीलिये इस कालको ऐसा उपनाम दिया गया है। हमें भी पंचमकाल अथवा कलियुग हालमें तो अनुभव दे रहा है। हमारा चित्त अतिशय निस्पृह है, और हम जगत्में सस्पृह होकर रह रहे हैं; यह सब कलियुगकी ही कृपा है। १९३ बम्बई, फाल्गुन वदी १४ बुध. १९४७ देहाभिमाने गलिते, विज्ञाते परमात्मनि । यत्र यत्र मनो याति, तत्र तत्र समाधयः॥ 'मैं कर्ता हूँ, मैं मनुष्य हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ,' इत्यादि रूपसे रहनेवाला जिसका देहाभिमान नष्ट हो गया है, और जिसने सर्वोत्तम पदरूप परमात्माको जान लिया है, उसका मन जहाँ कहीं भी जाता है, वहाँ वहाँ उसको समाधि ही है। कई बार आपके विस्तृत पत्र मिलते हैं, और ये पत्र पढ़कर पहिले तो आपके समागममें ही रहनेकी इच्छा होती है; तथापि.कारणसे उस इच्छाका किसी भी तरहसे विस्मरण करना पड़ता है; तथा पत्रका सविस्तर उत्तर लिखनेकी इच्छा होती है, तो वह इच्छा भी बहुत करके शायद ही पूर्ण हो पाती है । इसके दो कारण हैं:-एक तो यह है कि इस विषयमें अधिक लिखने योग्य दशा नहीं रही। और दूसरा कारण उपाधियोग है । उपाधियोगकी अपेक्षा विद्यमान दशावाला कारण अधिक बलवान है। यह दशा बहुत निस्पृह है, और उसके कारण मन अन्य विषयमें प्रवेश नहीं करता, और उसमें भी परमार्थक विषयमें लिखनेके लिये तो केवल शून्य जैसा हो जाया करता है। इस विषयमें लेखन
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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