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________________ पत्र १७५, १७६ ] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २३३ यही है, किन्तु उसको स्थूल बनाकर, व्यासर्जाने उसे इस रूपसे वर्णन किया है, और उसके द्वारा अपनी अद्भुत भक्तिका परिचय दिया है । इस कथाका और समस्त भागवतका अक्षर अक्षर केवल इस एकको ही प्राप्त करनेके उद्देशसे भरा पड़ा है; और वह ( हमें ) बहुत समय पहले समझमें आ गया है । आज बहुत ही ज्यादा स्मरणमें है, क्योंकि साक्षात् अनुभवकी प्राप्ति हुई है, और इस कारण आजकी दशा परम अद्भुत है । ऐसी दशासे जीव उन्मत्त हुए बिना न रहेगा । तथा वासुदेवहरि जान बूझकर कुछ समयके लिये अन्तर्धान भी हो जानेवाले लक्षणोंके धारक हैं; इसीलिये हम असंगता चाहते हैं; और आपका सहवास भी असंगता ही है, इस कारण भी वह हमें विशेष प्रिय है। ___ यहाँ सत्संगकी कमी है, और विकट स्थानमें निवास है। हरि-इच्छापूर्वक ही घूमने फिरनेकी वृत्ति रक्खी है, इसके कारण यद्यपि कोई खेद तो नहीं; परन्तु भेदका प्रकाश नहीं किया जा सकता; यही चिंता निरन्तर रहा करती है । अनेक अनेक प्रकारसे मनन करनेपर हमें यही दृढ़ निश्चय हुआ है कि भक्ति ही सर्वोपरि मार्ग है; और वह ऐसी अनुपम वस्तु है कि यदि उसे सत्पुरुषके चरणोंके समीप रहकर की जाय तो वह क्षणभरमें मोक्ष दे सकती है। विशेष कुछ लिखा नहीं जाता; परमानन्द है, परन्तु असत्संग है, अर्थात् सत्संग नहीं है। (२) किसी ब्रह्मरसके भोक्ताको कोई विरला योगी ही जानता है । बम्बई, माघ वदी ३, १९४७ भेजी हुई वचनावलीमें आपकी प्रसन्नता होनेसे हमारी प्रसन्नताको उत्तेजना मिली। इसमें संतका अद्भुत मार्ग प्रकाशित किया गया है । यदि वह एक ही वृत्तिसे इन वाक्योंका आराधन करेगा, और उसी पुरुषकी आज्ञामें लीन रहेगा तो अनन्तकालसे प्राप्त हुआ परिभ्रमण मिट जायगा। उसे मायाका विशेष मोह है, और वही मार्गके मिलनेमें महान् प्रतिबंध माना गया है, इसलिये मेरी उससे ऐसी वृत्तियोंको धीरे धीरे कम करनेकी प्रार्थना है। १७६ बम्बई, माघ वदी ११ शुक्र. १९४७ तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः जो सर्वत्र एकत्व (परमात्मस्वरूप) को ही देखता है, उसे मोह क्या और शोक क्या ! यदि वास्तविक सुख जगत्की दृष्टिमें आया होता तो ज्ञानी पुरुषोंसे नियत किया हुआ मोक्षस्थान ऊर्ध्वलोकमें नहीं होता; परन्तु यह जगत् ही मोक्ष-स्थान होता।। यबपि यह बात सत्य ही है कि ज्ञानीको तो सर्वत्र ही मोक्ष है, फिर भी उस ज्ञानीको यह कोई ब्रह्मरसना भोगी, कोई ब्रह्मरसना भोगी। . जाणे कोई वीरला योगी, कोई नारसना भोगी.।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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