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________________ पत्र १७३ वचनावली ] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष २३१ ५. जबतक प्रत्यक्ष ज्ञानीकी इच्छानुसार, अर्थात् उसकी आज्ञानुसार नहीं चला जाय, तबतक अज्ञानकी निवृत्ति होना संभव नहीं। ६. ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन वही कर सकता है जो एकनिष्ठासे तन, मन, धनकी आसक्तिका त्याग करके उसकी भक्तिमें लगे । ७. यद्यपि ज्ञानी लोग भक्तिकी इच्छा नहीं करते, परन्तु उसको किये बिना मोक्षाभिलाषीको उपदेश नहीं लगता, तथा वह उपदेश मनन और निदिध्यासन आदिका हेतु नहीं होता, इसलिये मुमुक्षुओंको ज्ञानीकी भक्ति अवश्य करना चाहिये, ऐसा सत्पुरुषोंने कहा है। ८. ऋषभदेवजीने अपने अहानवें पुत्रोंको शीघ्रसे शीघ्र मोक्ष जानेका यही मार्ग बताया था । ९. परीक्षित राजाको शुकदेवजीने यही उपदेश किया है । १०. यदि जीव अनन्त कालतक भी अपनी इच्छानुसार चलकर परिश्रम करता रहे तो भी वह अपने आपसे ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाता, परन्तु ज्ञानीकी आज्ञाका आराधक अन्तमुहूर्तमें भी केवलज्ञान पा सकता है। ११. शास्त्रमें कहीं हुई आज्ञायें परोक्ष हैं, और वे जीवको अधिकारी होने के लिये ही कहीं गई हैं; मोक्षप्राप्तिके लिये तो ज्ञानीकी प्रत्यक्ष आज्ञाका आराधन होना चाहिये । (२) चाहे जैसे विकट मार्गसे भी यदि परमात्मामें परमस्नेह होता हो तो भी उसे करना ही योग्य है । सरल मार्ग मिलनेपर उपाधिके कारणसे तन्मय भक्ति नहीं रहती, और एकसरीखा स्नेह नहीं उभराता; इस कारण खेद रहा करता है, और बारम्बार वनवासकी इच्छा हुआ करती है । यद्यपि वैराग्य तो ऐसा है कि प्रायः घर और वनमें आत्माको कोई भी भेद नहीं लगता, परन्तु उपाधिके प्रसंगके कारण उसमें उपयोग रखनेकी बारम्बार जरूरत रहा करती है, जिससे कि उस समय परम स्नेहपर आवरण लाना पड़ता है, और ऐसे परम स्नेह और अनन्य प्रेमभक्तिके आये. बिमा देहत्याग करनेकी इच्छा नहीं होती। __यदि कदाचित् सब आत्माओंकी ऐसी ही इच्छा हो तो कैसी भी दीनतासे उस इच्छाको निवृत्त करना, किन्तु प्रेमभक्तिकी पूर्ण लय आये बिना देहत्याग नहीं किया जा सकता, और बारम्बार यही रटन रहनेसे हमेशा यही मन रहता है कि वनमें जॉय' 'वनमें जॉय '। यदि आपका निरंतर सत्संग रहा करे तो हमें घर भी वनवास ही है।। ... श्रीमद्भागवतमें गोपांगनाकी सुंदर आख्यायिका दी हुई है, और उनकी प्रेमभक्तिका वर्णन किया है । ऐसी प्रेमभक्ति इस कलिकालमें प्राप्त होना कठिन है, यद्यपि यह सामान्य कथन है, तथापि कलिकालमें निश्चय मतिसे यही रटन लगी रहे तो परमात्मा अनुग्रह करके शीघ्र ही यह भक्ति प्रदान करता है। यह दशा बारम्बार याद आती है, और ऐसा उन्मत्तपना परमात्माको पानेका परमद्वार है। यही दशा विदेही थी। भरतजीको हरिणके संगसे जन्मकी द्धि हुई थी, और उससे वे जड़भरतके भवमें असंग होकर
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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