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________________ १४६ सम्बई, कार्तिक मुदी १३ सोम, १९४७ १. जिसने इसके स्वमका दर्शन प्राप्त किया है, उसका मन किसी दूसरी मी जंगह.भ्रमण नहीं करता । जिसे कृष्णका लेशमात्र भी समागम रहता है, उसके मनको संसारका समागम ही अच्छा नहीं लगता ॥ १॥ : मैं जिस समय हँसते-खेलते हुए प्रगटरूपसे हरिको देखें, उसी समय मेरा जीवन सफल है। शोधाकवि कहते हैं कि हे उन्मुकं आनन्दमें विहार करनेवाले । तू ही हमारे जीवनका एक मात्र आधार है॥२॥ : २. ग्यारहवें गुणस्थान से व्युत हुना जीव कमसे कम तीन, और अधिकसे अधिक पन्द्रह भव करता है, ऐसा अनुभव होता है । ग्यारहवेंमें प्रकृतियोंका उपशमभाव होनेसे मन, वचन और कायाका योग प्रबल शुभभावमें रहता है, इससे साताका बंध होता है, और यह साता बहुत करके पाँच अनुत्तर विमानोंमें ले जानेवाली ही होती है। . पर्नु स्वप्ने जो दर्शन पामेरे, तेनु मन न चढ़े बीजे भामेरे, थाय कृष्णनो लेश प्रसंगरे, तेने न गमे संसारनो संगरे॥१॥ हसतां रमतां प्रगट हरी देखुरे, माकं जीव्युं सफळ तव लेखुरे मुक्तानन्दनो नाथ विहारीरे, मोधा जीवनदोरी अमारीरे ॥२॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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