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________________ २०० भीमद् राजवन्द्र [पत्र ११५ ११५ ववाणीआ, प्रथम भाद्रपद सुदी ६, १९४६ प्रथम संवत्सरीसे लेकर आजके दिनतक यदि किसी भी प्रकारसे मेरे मन, वचन और कायाके किसी भी योगाध्यवसायसे तुम्हारी अविनय, आसातना और असमाधि हुई हो, तो उसके लिये मैं पुनः पुनः आपसे क्षमा माँगता हूँ। __अंतर्ज्ञानसे स्मरण करनेपर ऐसा कोई भी काल मालूम नहीं होता, अथवा याद नहीं पड़ता कि जिस कालमें, जिस समयमें इस जीवने परिभ्रमण न किया हो, संकल्प-विकल्पका रटन न किया हो, और इससे ' समाधि ' को न भूल गया हो; निरंतर यही स्मरण रहा करता है, और यही महावैराग्यको पैदा करता है। फिर स्मरण होता है कि इस परिभ्रमणको केवल स्वच्छंदतासे करते हुए इस जीवको उदासीनता क्यों न आई ! दूसरे जीवोंके प्रति क्रोध करते हुए, मान करते हुए, माया करते हुए, लोभ करते हुए अथवा अन्यथा प्रकारसे बर्ताव करते हुए, वह सब अनिष्ट है, इसे योग्य रीतिसे क्यों न जाना ? अर्थात् इस तरह जानना योग्य था तो भी न जाना, यह भी परिभ्रमण करनेका वैराग्य पैदा करता है । फिर स्मरण होता है कि जिसके बिना मैं एक पलभर भी नहीं जी सकता, ऐसे बहुतसे पदार्थों (स्त्री आदि ) को अनंतबार छोड़ते हुए, उनका वियोग होते हुए अनंत काल हो गया; तथापि उनके बिना जीता रहा, यह कुछ कम आश्चर्यकी बात नहीं । अर्थात् जब जब वैसा प्रीतिभाव किया था तब तब वह केवल कल्पित ही था; ऐसा प्रीतिभाव क्यों हुआ ? यह विचार फिर फिरसे वैराग्य पैदा करता है। फिर जिसका मुख कभी भी न देखू ; जिसे मैं कभी भी ग्रहण न करूँ, उसीके घर पुत्ररूपमें, स्त्रीरूपमें, दासरूपमें, दासीरूपमें, नाना जंतुरूपमें मैं क्यों जन्मा ? अर्थात् ऐसे द्वेषसे ऐसे रूपोंमें मुझे जन्म लेना पड़ा ! और ऐसा करनेकी तो बिलकुल भी इच्छा नहीं थी ! तो कहो कि ऐसा स्मरण होनेपर क्या इस क्लेशित आत्मापर जुगुप्सा नहीं आती ! जरूर आती है। अधिक क्या कहें ! पूर्वके जिन जिन भवांतरोंमें भ्रांतिपनेसे भ्रमण किया, उनका स्मरण होनेसे अब कैसे जियें, यह चिंता खड़ी हो गई है । फिर कभी भी जन्म न लेना पड़े और फिर इस तरह न करना पड़े, आत्मामें ऐसी दृढ़ता पैदा होती है, परन्तु बहुत कुछ लाचारी है, वहाँ क्या करें ! ___ जो कुछ दृढ़ता है उसे पूर्ण करना-अवश्य पूर्ण करना, बस यही रटन लगी हुई है। परन्तु जो कुछ विघ्न आता है उसे एक ओर हटाना पड़ता है, अर्थात् उसे दूर करना पड़ता है, और उसमें ही सब काल चला जाता है। सब जीवन चला जाता है; जबतक यथायोग्य जय न हो उस समयतक इसे न जाने देना, ऐसी दृढ़ता है । उसके लिये अब क्या करें ! यदि कदाचित् किसी रीतिसे उसमेंका कुछ करते भी हैं तो ऐसा स्थान कहाँ है कि जहाँ जाकर रहें ! अर्थात् संत कहाँ हैं कि जहाँ जाकर इस दशामें बैठकर उसकी पुष्टता प्राप्त करें ! तो अब क्या करें!
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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