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________________ . श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र १११, ११२, ११३ १११ ववाणीआ, श्रा. वदी ५ भौम. १९४६ (जं) णं (जं) णं दिसं इच्छंइ (तं ) गं (तं ) णं दिसं अपडिबद्ध जो जिस जिस दिशाकी ओर जानेकी इच्छा करता है, उसके लिये वह वह दिशा अप्रतिबद्ध अर्थात् खुली हुई है । ( उस रोक नहीं सकती।) जबतक ऐसी दशाका अभ्यास न हो, तबतक यथार्थ त्यागकी उत्पत्ति होना कैसे संभव हो सकता है ! पौद्गलिक रचनासे आत्माको स्तंभित करना उचित नहीं। ११२ ववाणीआ, श्रावण वदी १३ बुध. १९४६ आज मतांतरसे उत्पन्न हुआ पहिला पर्युषण आरंभ हुआ। अगले मासमें दूसरा पर्वृषण आरंभ होगा। सम्यक्-दृष्टिसे मतांतर दूर करके देखनेसे यही मतांतर दुगुने लाभका कारण है, क्योंकि इससे दुगुना धर्म-सम्पादन किया जा सकेगा। चित्त गुफाके योग्य हो गया है । कर्म-रचना विचित्र है । ११३ ववाणीआ, प्र. भाद्र. सुदी ३ सोम. १९४६ (१) आपके दर्शनोंका लाभ मिले हुए लगभग एक माससे कुछ ऊपर हो गया है । बम्बई छोड़े एक पक्ष हुआ। बम्बईका एक वर्षका निवास उपाधि-ग्राह्य रहा । समाधिरूप तो एक आपका समागम ही था, और उसका भी जैसा चाहिये वैसा लाभ प्राप्त न हुआ । सचमुच ही ज्ञानियोंद्वारा कल्पना किया हुआ यह कलिकाल ही है । जनसमुदायकी वृत्तियाँ विषय-कषाय आदिसे विषमताको प्राप्त हो गई हैं। इसकी प्रबलता प्रत्यक्ष है । उन्हें राजसी वृत्तिका अनुकरण प्रिय हो गया है। तात्पर्य-विवेकियोंकी और योग्य उपशम-पात्रोंकी तो छाया तक भी नहीं मिलती। ऐसे विषमकालमें जन्मी हुई यह देहधारी आत्मा अनादिकालके परिभ्रमणकी थकावटको उतारने विश्रांति लेनेके लिये आई थी, किन्तु उल्टी अविश्रांतिमें फंस गई है । मानसिक चिन्ता कहीं भी कही नहीं जा सकती। जिनसे इसे कह सकें ऐसे पात्रोंकी भी कमी है । वहाँ अब क्या करें ! यद्यपि यथायोग्य उपशमभावको प्राप्त आत्मा संसार और मोक्षपर समवृत्ति रखती है, अर्थात् वह अप्रतिबद्धरूपसे विचर सकती है। परन्तु इस आत्माको तो अभी वह दशा प्राप्त नहीं हुई। हाँ, उसका अभ्यास है; तो फिरउसके पास यह प्रवृत्ति क्यों खड़ी होगी? जिसको प्राप्त करनेमें लाचारी है उसको सहन कर जाना ही सुखदायक है, और इसी तरहका आचरण कर भी रक्खा है। परन्तु जीवन पूर्ण होनेके पहिले यथायोग्य रीतिसे नीचेकी दशा आनी चाहिये: १. मन, वचन और कायसे आत्माका मुक्त-भाव । २. मनकी उदासीनरूपसे प्रवृत्ति ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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