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________________ १८४ भीमद् राजचन्द्र - [८५ लोक-अलोक रहस्य प्रकाश __ सब धर्मोंमें जो कुछ तत्त्वज्ञान कहा गया है वह सब एक ही है, और सम्पूर्ण दर्शनोंमें यही विवेक है । ये समझानेकी शैलियाँ हैं, इनमें स्याद्वादशैली भी सत्य है॥१॥ यदि तुम मुझे मूल-स्थितिके विषयमें पूछो तो मैं तुम्हें योगीको सौंपे देता हूँ। वह आदिमें, मध्यमें और अंतमें एकरूप है, जैसा कि अलोकमें लोक है ॥२॥ उसमें जीव-अजीवके स्वरूपको समझनेसे आसक्तिका भाव दूर हो गया और शंका दूर हो गई। स्थिति ऐसी ही है। क्या इसको समझानेका कोई उपाय नहीं है ! " उपाय क्यों नहीं है"! जिससे शंका न रहे। ॥ ३ ॥ यह एक महान् आश्चर्य है । इस रहस्यको कोई विरला ही जानता है । जब आत्म-ज्ञान प्रगट हो जाता है तभी यह ज्ञान पैदा होता है; उसी समय यह जीव बंध और मुक्तिके रहस्यको समझता है, और ऐसा समझनेपर ही वह सदाकालीन शोक एवं दुःखको दूर करता है ॥४॥ जो जीव बंधयुक्त है वह कर्मोंसे सहित है, और ये कर्म निश्चयसे पुद्गलकी ही रचना है। पहिले पुद्गलको जान ले, उसके पश्चात् ही मनुष्य-देहमें ध्यानकी प्राप्ति होती है ॥ ५॥ ___ यद्यपि यह देह पुद्गलकी ही बनी हुई है, परन्तु वास्तविक स्थिति कुछ दूसरी ही है । जब तेरा चित्त स्थिर हो जायगा उसके बाद दूसरा ज्ञान कहूँगा ॥ ६॥ जहाँ राग और द्वेष हैं वहाँ सदा ही लेश मानो । जहाँ उदासीनताका वास है वहीं सब दुःखोंका नाश है ॥१॥ जे गायो ते सघळे एक, सकळ दर्शने ए ज विवेक समजाव्यानी शैली करी, स्याद्वादसमजण पण खरी ॥ १ ॥ मळ स्थिति जो पछो मने. तो सोपी दठं योगी कनेः प्रथम अंतने मध्ये एक, लोकरूप अलोके देख ॥२॥ जीवाजीव स्थितिने जोई, टल्यो ओरतो शंका खोई; एम जे स्थिति त्यां नहीं उपाय, " उपाय कां नहिं ?" शंका जाय ॥ ३ ॥ ए आर्य जाणे ते जाण, जाणे ज्यारे प्रगटे भाण; . समजे बंधमुक्तियुत जीव, निरखी टाळे शोक सदीव ॥ ४ ॥ बंधयुक्त जीव कर्म सहित, पुद्गलरचना कर्म खचित, पुगलशान प्रथम ले जाण, नरदेहे पछी पामे ध्यान ॥ ५ ॥ जो के पुद्रलनो ए देह, तो पण ओर स्थिति त्यां छह समजण बीजी पछी कहीश, ज्यारे चित्ते स्थिर थईच ॥६॥ जहां राग अने बळी द्वेष, तहां सर्वदा मानो क्लेश उदासीनतानो ज्यां वास, सकळ दु:लनो छे त्यां नाश ॥ १॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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