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________________ पत्र ६२, ६१] विविध पत्र आदि संग्रह-२२वाँ वर्ष १७१ वृद्धने मेरे मनोगत भावको जानकर कहा:-बस, यही तुम्हारा कल्याण मार्ग है । इसपरसे होकर जाना चाहो तो अच्छी बात है; और अभी आना हो तो ये तुम्हारे साथी रहे। मैं उठकर उनमें मिल गया। (स्वविचार भुवन, द्वार प्रथम ) ६२ बम्बई, कार्तिक सुदी ७ गुरु. १९४६ इस पत्रके साथ अष्टक और योगबिन्दु नामकी दो पुस्तकें आपकी दृष्टिसे निकल जानेके लिये भेज रहा हूँ। योगबिन्दुका दूसरा पृष्ठ ढूँढ़नेपर भी नहीं मिल सका; तो भी बाकीका भाग समझमें आ सकने जैसा है, इसलिये यह पुस्तक भेजी है। योगदृष्टिसमुच्चय बादमें भेजूंगा। परम गूढ़ तत्त्वको सामान्य ज्ञानमें उतार देनेकी हरिभद्राचार्यकी चमत्कृति प्रशंसनीय है । किसी स्थलपर सापेक्ष खंडन मंडनका भाग होगा, उसकी ओर आपकी दृष्टि नहीं है, इससे मुझे आनंद है । यदि समय मिलनेपर ' अथ' से लेकर ' इति' तक अवलोकन कर जायँगे तो मेरे ऊपर कृपा होगी। (जैनदर्शन मोक्षका अखंड उपदेश करनेवाला और वास्तविक तत्त्वमें ही श्रद्धा रखनेवाला दर्शन है फिर भी कुछ लोग उसे ' नास्तिक ' कहकर पहिले उसका खंडन कर गये हैं, वह खंडन ठीक नहीं हुआ। इस पुस्तकके पढ़ जानेपर यह बात आपकी दृष्टिमें प्रायः आ जायगी)। मैं आपको जैनधर्मसंबंधी अपना कुछ भी आग्रह नहीं बताता । और आत्माका जो स्वरूप है वह स्वरूप उसे किसी भी उपायद्वारा मिल जाय, इसके सिवाय दूसरी मेरी कोई आंतरिक अभिलाषा नहीं है; इसे किसी भी तरहसे कहकर यह कहनेकी आज्ञा माँगता हूँ कि जैनदर्शन भी एक पवित्र दर्शन है। वह केवल यही समझकर कह रहा हूँ कि जो वस्तु जिस रूपसे स्वानुभवमें आई हो, उसे उसी रूपसे कहना चाहिये। सब सत्पुरुष केवल एक ही मार्गसे पार हुए हैं, और वह मार्ग वास्तविक आत्मज्ञान और उसकी अनुचारिणी देहकी स्थितिपर्यंत सक्रिया अथवा रागद्वेष और मोहरहित दशामें रहना है; ऐसी दशा रहनेसे ही वह तत्त्व उनको प्राप्त हुआ है, ऐसा मेरा स्वकीय मत है। आत्मामें इस प्रकार लिखनेकी अभिलाषा थी इसलिये यह लिखा है। इसमें यदि कुछ न्यूनाधिक हो गया हो तो उसे क्षमा करें। बम्बई, वि. सं. १९४६ कार्तिक (१) यह पूरा कागज़ है, वह मानों सर्वव्यापक चेतन है। उसके कितने भागमें माया समझें ! जहाँ जहाँ वह माया हो वहाँ वहाँ चेतनको बँध समझें या नहीं ! उसमें जुदे जुदे जीवोंको किस तरह मानें ! और उस जीवको बंध होना किस तरह मानें ! उस बंधकी निवृत्ति किस प्रकार मानें ! उस बंधकी निवृत्ति होनेपर चेतनके कौनसे भागको मायारहित हुआ समझें ! जिस भागमेंसे पहिले मुक्त हुए हों क्या उस भागको निरावरण समझें या और
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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