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________________ पत्र ५६] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष सुखकी इच्छा है उसकी प्राप्ति होती है। और इन्हीं विचारोंके मननसे अनंत कालका मोह दूर होता है; तथापि वे सबके लिये नहीं हैं। वास्तविक दृष्टिसे देखनेपर जो उसे अन्ततक पा सकें ऐसे पात्र बहुत ही कम हैं; काल बदल गया है । इन वस्तुओंके अंतको जल्दबाजी अथवा अशौचतासे लेने जानेपर जहर निकलता है, और वह भाग्यहीन अपात्र इन दोनों प्रकारके लोकोंसे भ्रष्ट होता है । इसलिये कुछ संतोंको अपवादरूप मानकर बाकीको उस क्रममें आनेके लिये उस गुफाका दर्शन करनेके लिये बहुत समयतक अभ्यासकी जरूरत है । कदाचित् यदि उस गुफाका दर्शन करनेकी उसकी इच्छा न हो तो भी अपने इस भवके सुखके लिये-पैदा होने और मरनेके बीचके भागको किसी तरह बितानेके लिये भी इस अभ्यासकी निश्चयसे जरूरत है; यह कथन अनुभवगम्य है, वह बहुतोंके अनुभवमें आया है, और बहुतसे आर्य-संतपुरुष उसके लिये विचार कर गये हैं। उन्होंने उसपर अधिकाधिक मनन किया है। उन्होंने आत्माको खोजकर उसके अपार मार्गमेंसे जो प्राप्ति हुई है उसकेद्वारा बहुतोंको भाग्यशाली बनानेके लिये अनेक क्रम बाँधे हैं। वे महात्मा जयवन्त हों ! और उन्हें त्रिकाल नमस्कार हो ! हम थोड़ी देरके लिये तत्त्वज्ञानकी गुफाको विस्मरण करके जब आर्योद्वारा उपदेश किये हुए अनेक क्रमोंपर आनेके लिये तैयार होते हैं, उस समयमें यह बता देना योग्य ही है कि हमें जो पूर्ण आल्हादकर लगता है, और जिसे हमने परमसुखकर, हितकर, और हृदयरूप माना है, वह सब कुछ उसीमें है; वह अनुभवगम्य है, और यही तो इस गुफाका निवास है, और मुझे निरंतर इसीकी अभिलाषा रहा करती है। यद्यपि अभी हालमें उस अभिलाषाके पूर्ण होनेके कोई चिन्ह दिखाई नहीं देते, तो भी क्रम-क्रमसे इसमें इस लेखकको जय ही मिलेगी, ऐसी उसे निश्चयसे शुभाकांक्षा है, और यह अनुभवगम्य भी है। अभीसे ही यदि योग्य रीतिसे उस क्रमकी प्राप्ति हो जाय तो इस पत्रके लिखने जितनी ढील करनेकी भी इच्छा नहीं; परन्तु कालकी कठिनता है भाग्यकी मंदता है; संतोंकी कृपादृष्टि दृष्टिगोचर नहीं है। और सत्संगकी कमी है। वहाँ कुछ ही तो भी हृदयमें उस क्रमका बीजारोपण अवश्य हो गया है, और यही सुखकर हुआ है। सृष्टिके राज्यसे भी जिस सुखके मिलनेकी आशा नहीं थी, तथा जो अनंत शांति किसी भी रीतिसे, किसी भी औषधिसे, साधनसे, स्त्रीसे, पुत्रसे, मित्रसे अथवा दूसरे अनेक उपचारोंसे नहीं होनेवाली थी वह अब हो गई है। अब सदाके लिये भविष्यकालकी भीति चली गई है, और एक साधारण जीवनमें आचरण करता हुआ यह तुम्हारा मित्र इसीके कारण जी रहा है, नहीं तो जीनेमें निश्चयसे शंका ही थी। विशेष क्या कहें ? यह भ्रम नहीं है, बहम नहीं है, बिल्कुल सत्य ही है। जो त्रिकालमें एकतम परमप्रिय और जीवन वस्तु है उसकी प्राप्तिका बीजारोपण कैसे और किस प्रकारसे हुआ ! इस बातका विस्तारपूर्ण विवेचन करनेका यहाँ अवसर नहीं है, परन्तु यही मुझे निश्चयसे त्रिकालमान्य है, इतना ही मैं यहाँ कहना चाहता हूँ, क्योंकि लेखन-समय बहुत थोड़ा है। इस प्रिय जीवनको सब कोई पा जॉय, सब कोई इसके लिये पात्र बनें, यह सबको प्रिय लगे, सबको इसमें रुचि हो, ऐसा भूतकालमें कभी हुआ नहीं, वर्तमानकालमें होनेवाला नहीं, और भविध्यकालमें कभी होगा नहीं, और यही कारण है कि त्रिकालमें यह जगत् विचित्र बना रहता है। जब हम मनुष्यके सिवाय दूसरे प्राणियोंकी जाति देखते हैं, तो उसमें इस वस्तुका विवेक नहीं मालूम होता; अब जो मनुष्य रहे उन सब मनुष्योंमें भी यह बात नहीं देख सकेंगे।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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