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________________ पत्र ५४, ५५] विविध पत्र आदि संग्रह-२१वाँ वर्ष वि. सं. १९४५ अहो हो ! कर्मकी कैसी विचित्र बंध-स्थिति है ! जिसकी स्वप्नमें भी इच्छा नहीं होती औ जिसके लिये परम शौक होता है, उसी गंभीरतारहित दशासे चलना पड़ता है। वे जिन-वर्द्धमान आदि सत्पुरुष कैसे महान् मनोविजयी थे। उन्हें मौन रहना, अमौन रहना दोनों ही सुलभ थे; उन्हें अनुकूल-प्रतिकूल सभी दिन समान थे उन्हें लाभ-हानि दोनों समान थी; उनका क्रम केवल आत्म-समताके लिये ही था । कैसे आश्चर्यकी बात है कि जिस एक कल्पनाका एक कल्पकालमें भी जय होना दुर्लभ है, ऐसी अनंत कल्पनाओंको उन्होंने कल्पके अनंतवें भागमें ही शान्त कर दिया । वि. सं. १९४५ यदि दुखिया मनुष्योंका प्रदर्शन किया जाय तो निश्चयसे मैं उनके सबसे अग्र भागमें आ सकता हूँ। मेरे इन वचनोंको पढ़कर कोई विचारमें पड़कर भिन्न भिन्न कल्पनायें न करने लग जाय, अथवा इसे मेरा भ्रम न मान बैठे इसलिये इसका समाधान यहीं संक्षेपमें लिखे देता हूँ: तुम मुझे स्त्रीसंबंधी दुःख नहीं मानना, लक्ष्मीसंबंधी दुःख नहीं मानना, पुत्रसंबंधी दुःख नहीं मानना, कीर्तिसंबंधी दुःख नहीं मानना, भयसंबंधी दुःख नहीं मानना, शरीरसंबंधी दुःख नहीं मानना, अथवा अन्य सर्ववस्तुसंबंधी दुःख नहीं मानना; मुझे किसी दूसरी ही तरहका दुःख है। वह दुःख वातका नहीं, कफका नहीं, पित्तका नहीं; शरीरका नहीं, वचनका नहीं, मनका नहीं, अथवा गिनो तो इन सभीका है, और न गिनो तो एकका भी नहीं; परन्तु मेरी विज्ञप्ति उस दुःखको न गिननेके लिये ही है; क्योंकि इसमें कुछ और ही मर्म अन्तर्हित है। ___इतना तो तुम जरूर मानना कि मैं बिना दिवानापनेके यह कलम चला रहा हूँ। मैं राजचन्द्र नामसे कहा जानेवाला ववाणीआ नामके एक छोटेसे गाँवका रहनेवाला, लक्ष्मीमें साधारण होनेपर भी आर्यरूपसे माना जानेवाला दशाश्रीमाली वैश्यका पुत्र गिना जाता हूँ। मैंने इस देहमें मुख्यरूपसे दो भव किये हैं, गौणका कुछ हिसाब नहीं । छुटपनकी छोटी समझमें कौन जाने कहाँसे ये बड़ी बड़ी कल्पनायें आया करती थीं । मुखकी अभिलाषा भी कुछ कम न थी; और सुखमें भी महल, बाग, बगीचे, स्त्री तथा राग-रंगोंके भी कुछ कुछ ही मनोरथ थे, किंतु सबसे बड़ी कल्पना इस बातकी थी कि यह सब क्या है ? इस कल्पनाका एक बार तो ऐसा फल निकला कि न पुनर्जन्म है, न पाप है, और न पुण्य है; सुखसे रहना, और संसारका भोग करना, बस यही कृतकृत्यता है । इसमेंसे दूसरी शंझटोंमें न पड़कर धर्मकी कासनायें भी निकाल डाली । किसी भी धर्मके लिये थोड़ा बहुत भी मान अथवा श्रद्धाभाव न रहा, किन्तु थोड़ा समय बीतनेके बाद इसमेंसे कुछ और ही हो गया ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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