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________________ पत्र ५१ विविध पत्र आदि संग्रह-२१वाँ वर्ष . जो संस्कार अत्यन्त अभ्यास करनेके बाद उत्पन्न होते हैं, वे सब मुझे बिना किसी परिश्रमके ही सिद्ध हो गये, तो फिर अब पुनर्भवकी क्या शंका है ! ॥ २॥ ___ ज्यों ज्यों बुद्धिकी अल्पता होती जाती है और मोह बढ़ता जाता है, त्यों त्यों संसार-भ्रमण भी बढ़ता जाता है और अंतर्योति मलीन हो जाती है ॥ ३ ॥ अनेक तरहके नास्तिरूप विचारोंपर मनन करनेपर यही निर्णय दृढ़ होता है कि अस्तिरूप विचार ही उत्तम हैं ॥४॥ पुनर्जन्मकी सिद्धिके लिये यही एक बड़ा अनुकूल तर्क है कि यह भव दूसरे भवके विना नहीं हो सकता । इसको विचारनेसे आत्मधर्मका मूल प्राप्त हो जाता है ॥५॥ वि. सं. १९४५ स्त्रीसंबंधी मेरे विचार बहुत बहुत शान्त विचार करनेपर यह सिद्ध हुआ है कि निराबाध सुखका आधार शुद्ध ज्ञान है; और वही परम समाधि भी है । केवल बाह्य आवरणकी दृष्टि से स्त्री संसारका सर्वोत्तम सुख मान ली गई है, परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है । विवेक दृष्टिसे देखनेपर स्त्रीके साथ संयोगजन्य सुखके भोगनेका जो चिन्ह है वह वमन करने योग्य स्थान भी नहीं ठहरता । जिन जिन पदार्थोपर हमें घृणा आती है वे सब पदार्थ स्त्रीके शरीरमें मौजूद हैं, और उनकी वह जन्मभूमि है। फिर यह सुख क्षणिक, खेद रूप, और खुजलीके रोगके समानही है। उस समयका दृश्य हृदयमें अंकितकर यदि उसपर विचार करें तो हँसी आती है कि यह कैसी भूल है ? संक्षेपमें कहनेका अभिप्राय यह है कि उसमें कुछ भी सुख नहीं। और यदि उसमें सुख हो तो उसकी चर्मरहित दशाका वर्णन तो कर देखो ! तब उससे यही मालूम होगा कि यह मान्यता केवल मोहदशाके कारण हुई है। यहाँ मैं स्त्रीके भिन्न भिन्न अवयव आदिके भागोंका विवेचन करने नहीं बैठा हूँ, परन्तु उस ओर फिर कभी आत्मा न चली जाय, यह जो विवेक हुआ है, उसका सामान्य सूचन किया है। स्त्रीमें कोई दोष नहीं है, परन्तु दोष तो अपनी आत्मामें हैं। और इन दोषोंके निकल जानेसे आत्मा जो कुछ देखती है वह अद्भुत आनंदस्वरूप ही है; इसलिये इस दोषसे रहित होना, यही परम अभिलाषा है। जे संस्कार थवो घटे, अति अभ्यासे काय, विना परिश्रम ते ययो, भवशंका शी त्यांय १ ॥२॥ जेम जेम मति अल्पता, अने मोह उद्योत; तेम तेम भवशंकना, अपात्र अंतर् ज्योत ॥ ३ ॥ करी कल्पना दृढ करे, नाना नास्ति-विचार पण 'अस्ति' ते सूचवे, एज खरो निर्धार ॥ ४॥ आ भव वण भव छे नहीं, एज तर्क अनुकूळ; विचारता पामी गया, आत्मधर्मर्नु मूळ ॥ ५॥...
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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