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________________ ३७ संयति मुनिधर्म ] विविध पत्र आदि संग्रह-२१वाँ वर्ष ૨૭. (२) निरंतर समाधिभावमें रहो । मैं तुम्हारे समीप ही बैठा हूँ, ऐसा समझो । अब देह-दर्शनका ध्यान हटाकर आत्म-दर्शनमें स्थिर रहो । मैं समीप ही हूँ, ऐसा मानकर शोक कम करो-जरूर कम करो, आरोग्यता बढ़ेगी । जिन्दगीकी संभाल रक्खो । अभी हालमें देह-त्यागका भय न समझो । यदि ऐसा समय होगा भी तो और वह ज्ञानीगम्य होगा तो ज़रूर पहलेसे कोई कह देगा अथवा उसका उपाय बता देगा। अभी हालमें तो ऐसा है नहीं। उस पुरुषको प्रत्येक छोटेसे छोटे कामके आरंभमें भी स्मरण करो; वह समीप ही है। यदि ज्ञानीदृश्य होगा तो थोड़े समय वियोग रहकर फिरसे संयोग होगा और सब अच्छा ही होगा। दशवैकालिक सिद्धांतको आजकल पुनः मनन कर रहा हूँ। अपूर्व बात है। यदि पमासन लगाकर अथवा स्थिर आसनसे बैठा जा सके ( अथवा लेटा जा सके तो भी ठीक है, परन्तु स्थिरता होनी चाहिये ), देह डगमग न करती हो, तो आँख मींचकर नाभिके भागपर दृष्टि पहुँचाओ, फिर उस दृष्टिको छातीके मध्यमें लाकर ठेठ कपालके मध्यभागमें ले जाओ, और सब जगतको शून्याभासरूप चितवन करके, अपनी देहमें सब स्थलोंमें एक ही तेज व्याप्त हो रहा है, ऐसा ध्यान रखकर, जिस रूपसे पार्श्वनाथ आदि अर्हत्की प्रतिमा स्थिर और धवल दिखाई देती है, छातीके मध्यभागमें वैसा ही ध्यान करो । यदि इसमेंसे कुछ भी न हो सकता हो तो सबेरेके चार या पाँच बजे जागकर रजाईको तानकर एकाग्रता लानेका प्रयत्न करना, और हो सके तो अर्हत् स्वरूपका चितवन करना, नहीं तो कुछ भी चितवन न करते हुए समाधि अथवा बोधि इन शब्दोंका ही चितवन करना। इस समय बस इतना ही। परमकल्याणकी यह एक श्रेणी होगी। इसकी कमसे कम स्थिति बारह पल और उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्तकी रखनी। ३७ वि. सं. १९४५ वैशाख __ संयति मुनिधर्म १. अयत्नपूर्वक चलनेसे प्राणियोंकी हिंसा होती है। ( उससे ) पापकर्म बँधता है; उससे कडुवा फल प्राप्त होता है। २. अयत्नपूर्वक खड़े रहनेसे प्राणियोंकी हिंसा होती है । ( उससे) पापकर्म बंधता है; उससे कडुवा फल प्राप्त होता है। . ३. अयत्नपूर्वक शयन करनेसे प्राणियोंकी हिंसा होती है। (उससे ) पापकर्म बंधता है; उससे कडुवा फल प्राप्त होता है। ४. अयत्नपूर्वक आहार लेनेसे प्राणियोंकी हिंसा होती है । (उससे) पापकर्म बँधता है; उससे कडुवा फल प्राप्त होता है। ५. अयत्नपूर्वक बोलनेसे प्राणियोंकी हिंसा होती है। (उससे) पापकर्म बँधता है, उससे कडुवा फलं प्राप्त होता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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