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________________ पत्र २९] विविध पत्र आदि संग्रह-२१वाँ वर्ष १४३ २९ ववाणीआ, माघ वदी ७ शुक्र. १९४५ सत्पुरुषोंको नमस्कार सुज्ञ,-आप वैराग्यविषयक मेरी आत्म-प्रवृत्तिके विषयमें पूँछते हैं, इस प्रश्नका उत्तर किन शब्दोंमें लिखें ! और उसके लिये आपको प्रमाण भी क्या दे सकूँगा ! तो भी संक्षेपमें यदि ज्ञानीके माने हुए इस ( तत्त्व ! ) को मान लें कि उदयमें आये हुए पूर्व कर्मोको भोग लेना और नूतन कर्म न बँधने देना, तो इसमें ही अपना आत्म-हित है । इस श्रेणीमें रहनेकी मेरी पूर्ण आकांक्षा है; परन्तु वह ज्ञानीगम्य है इसलिये अभी उसका एक अंश भी बाह्य प्रवृत्ति नहीं हो सकती । अंतरंग प्रवृत्ति चाहे कितनी भी रागरहित श्रेणीकी ओर जाती हो परन्तु अभी बाह्य प्रवृत्तिके आधीन बहुत रहना पड़ेगा, यह स्पष्ट ही है । बोलते, चलते, बैठते, उठते और कोई भी काम करते हुए लौकिक श्रेणीको ही अनुसरण करके चलना पड़ता है । यदि ऐसा न हो सके तो लोग तरह तरहके कुतर्क करने लग जायेंगे, ऐसी मुझे संभावना मालूम होती है । तो भी कुछ प्रवृत्ति फेरफारकी रक्खी है । तुम सबको मेरी (वैराग्यमयी ) प्रवृत्तिविषयक मान्यता कुछ बाधासे पूर्ण लगती है, तथा मेरी उस श्रेणीके लिये किसी किसीका मानना शंकासे पूर्ण भी हो सकता है, इसलिये तुम सब मुझे वैराग्यमें जाते हुए रोकनेका प्रयत्न करो, और शंका करनेवाले उस वैराग्यसे उपेक्षित होकर माने नहीं, इससे खेद पाकर संसारकी वृद्धि करनी पड़े, इसी कारण मेरी यह मान्यता है कि इस पृथिवी मण्डलपर सत्य अंतःकरणके दिखानेकी प्रायः बहुत ही थोड़ी जगह संभव हैं। जैसे बने वैसे आत्मा आत्मामें लगकर यदि जीवनपर्यंत समाधिभावसे युक्त रहे, तो फिर उसे संसारसंबंधी खेदमें पड़ना ही न पड़े। अभी तो तुम जैसा देखते हो मैं वैसा ही हूँ। जो संसारी प्रवृत्ति होती है, वह करता हूँ। धर्मसंबंधी मेरी जो प्रवृत्ति उस सर्वज्ञ परमात्माके ज्ञानमें झलकती हो वह ठीक है। उसके विषयमें पूछना योग्य न था । वह पूंछनेसे कही भी नहीं जा सकती । जो सामान्य उत्तर देना योग्य था वही दिया है । क्या होता है ? और पात्रता कहाँ है ? यह देख रहा हूँ। उदय आये हुए कर्मीको भोग रहा हूँ, वास्तविक स्थितिमें अभी एकाध अंशमें भी आया होऊँ, ऐसा कहनेमें आत्मप्रशंसा जैसी बात हो जानेकी संभावना है। यथाशक्ति प्रभुभाक्ति, सत्संग, और सत्य व्यवहारके साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ प्राप्त करते रहो । जिस प्रयत्नसे आत्मा ऊर्ध्वगतिको प्राप्त हो वैसा करो। समय समयमें क्षणिक जीवन व्यतीत होता जाता है, उसमें भी प्रमाद करते हैं, यही महामोहनीयका बल है। वि. रायचंदका सत्पुरुषोंको नमस्कार सहित प्रणाम.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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