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________________ पत्र १८, १९, २०] विविध पत्र आदि संग्रह-२०वाँ वर्ष समय आहार-विहार किया जाता है । थोड़ा समय शौच क्रियामें जाता है । छह घंटे निद्रामें जाते है। थोड़ा समय मनोराज रोकते हैं । फिर भी छह घंटे बच जाते हैं । सत्संगका लेशमात्र भी न मिलनेसे यह बिचारी आत्मा विवेक प्राप्तिके लिये छटपटाया करती है। वि. सं. १९४४ जब आत्मा सहज स्वभावसे मुक्त, अत्यंत प्रत्यक्ष और अनुभवस्वरूप है, तो फिर ज्ञानी पुरुषोंको आत्मा है, आत्मा नित्य है, बंध है, मोक्ष है, इत्यादि अनेक प्रकारसे निरूपण करना योग्य न था। यदि आत्मा अगम अगोचर है तो फिर वह किसीके द्वारा नहीं जानी जा सकती, और यदि वह सुगम सुगोचर है तो फिर उसको जाननेका प्रयत्न करना ही योग्य नहीं । वि. सं. १९४४ नेत्रोंकी श्यामतामें जो पुतलियाँ हैं, वे सब रूपको देखती हैं और साक्षीभूत हैं, किन्तु वे इस अंतरको क्यों नहीं देखतीं ? जो त्वचाको स्पर्श करती है, शीत उष्णादिकको जानती है, ऐसी वह सर्व अंगोंमें व्याप्त होकर अनुभव करती है-जैसे तिलोंमें तेल व्यापक रहता है-उसका अनुभव कोई भी नहीं करता । जो शब्द-श्रवण-इंद्रियके भेदोंको ग्रहण करती है, उस शब्दशक्तिको जाननेवाली कोई न कोई सत्ता अवश्य है, जिसमें शब्दशक्तिका विचार होता है, जिसके कारण रोम खड़े हो आते हैं, वह सत्ता दूर कैसे हो सकती है ? जो अपनी जिह्वाके अग्रमें रसस्वादको ग्रहण करती है, उस रसका अनुभव करनेवाली कोई न कोई अलेप सत्ता अवश्य है, वह सामने आये विना कैसे रह सकती है ? वेद, वेदांत, सप्त सिद्धांत, पुराण, गीताद्वारा जो ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य आत्मा है उसको ही जब जान लिया तब विश्राम कैसे न हो ? २० (१) बम्बई, वि. सं. १९४४ जिस आत्मामें :विशालबुद्धि, मध्यस्थता, सरलता और जितेन्द्रियता इतने गुण हों, वह आत्मा तत्त्व पानेके लिये उत्तम पात्र है। अनंतबार जन्ममरण कर चुकी हुई इस आत्माकी करुणा ऐसे ही उत्तम पात्रको उत्पन्न होती है, और ऐसा वह पात्र ही कर्म-मुक्त होनेका अभिलाषी कहा जा सकता है । वही पुरुष यथार्थ पदार्थको यथार्थ स्वरूपसे समझकर मुक्त होनेके पुरुषार्थमें लगता है। जो आत्माएँ मुक्त हुई हैं वे आत्माएँ कुछ स्वच्छंद आचरणसे मुक्त नहीं हुई, परन्तु वे आप्तपुरुषके उपदेश किये हुये मार्गके प्रबल अवलंबनसे ही मुक्त हुई हैं। अनादि कालके महाशत्रुरूपी राग, द्वेष और मोहके बंधनमें वह अपने संबंधमें विचार नहीं कर
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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