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________________ १०० श्रीमद् राजचन्द्र [प्रथम दर्शन निव्वाणसेहा जह सव्वधम्मा सब धर्मोमें मुक्तिको श्रेष्ठ कहा है. सारांश यह है कि मुक्ति उसे कहते हैं कि संसार-शोकसे मुक्त होना, और परिणाममें ज्ञान दर्शन आदि अनुपम वस्तुओंको प्राप्त करना । जिसमें परम सुख और परमानंदका अखंड निवास है, जन्म-मरणकी विडम्बनाका अभाव है, शोक और दुःखका क्षय है; ऐसे इस विज्ञानयुक्त विषयका विवेचन किसी अन्य प्रसंगपर करेंगे। यह भी निर्विवाद मानना चाहिये कि उस अनंत शोक और अनंत दुःखकी निवृत्ति इन्हीं सांसारिक विषयोंसे नहीं होगी । जैसे रुधिरसे रुधिरका दाग नहीं जाता, परन्तु वह दाग जलसे दूर हो जाता है इसी तरह श्रृंगारसे अथवा शृंगारमिश्रित धर्मसे संसारकी निवृत्ति नहीं होती। इसके लिये तो वैराग्य-जलकी आवश्यकता निःसंशय सिद्ध होती है, और इसीलिये वीतरागके वचनोंमें अनुरक्त होना उचित है । कमसे कम इससे विषयरूपी विषका जन्म नहीं होता। अंतमें यही मुक्तिका कारण हो जाता है । हे मनुष्य ! इन वीतराग सर्वज्ञके वचनोंको विवेक-बुद्धिसे श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके आत्माको उज्ज्वल कर ! प्रथम दर्शन वैराग्यकी और आत्महितैषी विषयोंकी सुदृढ़ता होनेके लिये बारह भावनाओंका तत्वज्ञानियोंने उपदेश किया है: १ अनित्यभावनाः-शरीर, वैभव, लक्ष्मी, कुटुम्ब परिवार आदि सब विनाशीक हैं । जीवका केवल मूलधर्म ही अविनाशी है, ऐसा चितवन करना पहली अनित्यभावना है। २ अशरणभावनाः-संसारमें मरणके समय जीवको शरण रखनेवाला कोई नहीं, केवल एक शुभ धर्मकी ही शरण सत्य है, ऐसा चिंतवन करना दूसरी अशरणभावना है। ३ संसारभावना:-इस आत्माने संसार-समुद्रमें पर्यटन करते हुए सब योनियोंमें जन्म लिया है, इस संसाररूपी जंजीरसे मैं कब छुटूंगा ! यह संसार मेरा नहीं, मैं मोक्षमयी हूँ, इस प्रकार चितवन करना तीसरी संसारभावना है। ४ एकत्वभावना:-यह मेरी आत्मा अकेली है, यह अकेली ही आती है, और अकेली जायगी, और अपने किए हुए कौको अकेली ही भोगेगी, इस प्रकार अंतःकरणसे चिंचतवन करना यह चौथी एकत्वभावना है। ५ अन्यत्वभावनाः-इस संसारमें कोई किसीका नहीं, ऐसा विचार करना पाँचवीं अन्यत्वभावना है। ६ अशुचिभावना:-यह शरीर अपवित्र है,मलमूत्रकी खान है, रोग और जराका निवासस्थान है। इस शरीरसे मैं न्यारा हूँ, यह चितवन करना छडी अशुचिभावना है। ७ आश्रवभावनाः-राग, द्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व इत्यादि सब आश्रवके कारण हैं, इस प्रकार चितवन करना सातवीं आश्रवभावना है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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