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________________ भावनाबोध उपोद्धात सच्चा सुख किसमें है ! चाहे जैसे तुच्छ विषयमें प्रवेश होनेपर भी उज्ज्वल आत्माओंकी स्वाभाविक अभिरुचि वैराग्यमें लग जानेकी ओर रहा करती है । बाह्य दृष्टिसे जबतक उज्ज्वल आत्मायें संसारके मायामय प्रपंचमें लगी हुई दिखाई देती हैं तबतक इस कथनका सिद्ध होना शायद कठिन है, तो भी सूक्ष्म दृष्टिसे अवलोकन करनेपर इस कथनका प्रमाण बहुत आसानीसे मिल जाता है, इसमें संदेह नहीं। सूक्ष्मसे सूक्ष्म जंतुसे लेकर मदोन्मत्त हाथी तकके सब प्राणियों, मनुष्यों, और देवदानवों आदि सबकी स्वाभाविक इच्छा सुख और आनंद प्राप्त करनेकी है, इस कारण वे इसकी प्राप्तिके उद्योगमें लगे रहते हैं; परन्तु उन्हें विवेक-बुद्धिके उदयके विना उसमें भ्रम होता है। वे संसारमें नाना प्रकारके सुखका आरोप कर लेते हैं । गहरा अवलोकन करनेसे यह सिद्ध होता है कि यह आरोप वृथा है । इस आरोपको उड़ा देनेवाले विरले मनुष्य अपने विवेकके प्रकाशके द्वारा अदुत इनके अतिरिक्त अन्य विषयोंको प्राप्त करनेके लिये कहते आये हैं । जो सुख भयसे युक्त है, वह सुख सुख नहीं परन्तु दुःख है । जिस वस्तुके प्राप्त करनेमें महाताप है, जिस वस्तुके भोगनेमें इससे भी विशेष संताप सन्निविष्ट है, तथा परिणाममें महाताप, अनंत शोक, और अनंत भय छिपे हुए हैं, उस वस्तुका सुख केवल नामका सुख है; अथवा बिलकुल है ही नहीं । इस कारण विवेकी लोग उसमें अनुराग नहीं करते । संसारके प्रत्येक सुखसे संपन्न राजेश्वर होनेपर भी सत्य तत्त्वज्ञानकी प्रसादी प्राप्त होनेके कारण उसका त्याग करके योगमें परमानंद मानकर भर्तृहरि सत्य मनोवीरतासे अन्य पामर आत्माओंको उपदेश देते हैं किः-- भोगे रोगभयं कुले च्युतिमयं वित्ते नृपालाद्भय मानै दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे तरुण्या भयं । शाने वादमयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयं ॥१॥ भावार्थ:-भोगमें रोगका भय है, कुलीनतामें च्युत होनेका भय है, लक्ष्मीमें राजाका भय है, मानमें दीनताका भय है, बलमें शत्रुताका भय है, रूपमें स्त्रीका भय है, शास्त्रमें वादका भय है, गुणमें खलका भय है, और काया कालका भय है। इस प्रकार सब वस्तुयें भयसे युक्त हैं। केवल एक वैराग्य ही भयरहित है!!!
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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