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________________ विविध प्रभ] मोक्षमाला उ.-अनादि कालसे आत्माके कर्म-जाल दूर करनेके लिये । प्र.-जीव पहला अथवा कर्म ! उ.-दोनों अनादि हैं । यदि जीव पहले हो तो इस विमल वस्तुको मल लगनेका कोई निमित्त चाहिये । यदि कर्मको पहले कहो तो जीवके विना कर्म किया किसने ! इस न्यायसे दोनों अनादि हैं। प्र.-जीव रूपी है अथवा अरूपी ! उ.-रूपी भी है और अरूपी भी है। प्र.-रूपी किस न्यायसे और अरूपी किस न्यायसे, यह कहिये ! उ.-देहके निमित्तसे रूपी है और अपने स्वरूपसे अरूपी है। प्र.-देह निमित्त किस कारणसे है ? उ.-अपने कर्मोके विपाकसे । प्र.--कर्मोकी मुख्य प्रकृतियाँ कितनी हैं ? उ.-आठ। प्र.-कौन कौन ? उ.-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय । प्र.-इन आठों कर्मीका सामान्यस्वरूप कहो । उ.-आत्माकी ज्ञानसंबंधी अनंत शक्तिके आच्छादन हो जानेको ज्ञानावरणीय कहते हैं। आत्माकी अनंत दर्शन शक्तिके आच्छादन हो जानेको दर्शनावरणीय कहते हैं। देहके निमित्तसे साता. असाता दो प्रकारके वेदनीय कर्मोंसे अव्याबाध सुखरूप आत्माकी शक्तिके रुके रहनेको वेदनीय कहते हैं। आत्मचारित्ररूप शक्तिके रुके रहनेको मोहनीय कहते हैं । अक्षय स्थिति गुणके रुके रहनेको आयुकर्म कहते हैं । अमूर्तिरूप दिव्यशक्तिके रुके रहनेको नामकर्म कहते हैं । अटल अवगाहनारूप आत्मिक शक्तिके रुके रहनेको गोत्रकर्म कहते हैं । अनंत दान, लाभ, वीर्य, भोग और उपभोग शक्तिके रुके रहनेको अंतराय कहते हैं। १०३ विविध प्रश्न (२) प्र.-इन कौके क्षय होनेसे आत्मा कहाँ जाती है ! उ.-अनंत और शाश्वत मोक्षमें । प्र.-क्या इस आत्माकी कभी मोक्ष हुई है ? उ.-नहीं। प्र.-क्यों? उ.-मोक्ष-प्राप्त आत्मा कर्म-मलसे रहित है, इसलिये इसका पुनर्जन्म नहीं होता । प्र.-केवलीके क्या लक्षण हैं ! उ.-चार घनघाती कौका क्षय करके और शेष चार कर्माको कृश करके जो पुरुष त्रयोदश गुणस्थानकवर्ती होकर विहार करते हैं, वे केवली हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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