SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद् राजवन्द्र [शानके संबंधमें दो शब्द वैराग्य पानेका, संसारके अनंत दुःख मनन करनेका और वीतराग भगवंतकी आज्ञासे समस्त लोकालोकका विचार करनेका अपूर्व उत्साह मिलता है । भेद भेदसे इसके और अनेक भाव समझाये हैं। इसमें कुछ भावोंके समझनेसे तप, शांति, क्षमा, दया, वैराग्य और ज्ञानका बहुत बहुत उदय होगा। - तुम कदाचित् इन सोलह भेदोंका पठन कर गये होगे तो भी फिर फिरसे उसका पुनरावर्तन करना। ७७ ज्ञानके संबंध दो शब्द जिसके द्वारा वस्तुका स्वरूप जाना जाय उसे ज्ञान कहते हैं; ज्ञान शब्दका यही अर्थ है । अब अपनी बुद्धिके अनुसार विचार करना है कि क्या इस ज्ञानकी कुछ आवश्यकता है ! यदि आवश्यकता है तो उसकी प्राप्तिके क्या साधन हैं ? यदि साधन हैं तो क्या इन साधनोंके अनुकूल द्रव्य, देश, काल और भाव मौजूद हैं ? यदि देश, काल आदि अनुकूल हैं तो वे कहाँ तक अनुकूल है ? और विशेष विचार करें तो इस ज्ञानके कितने भेद हैं ! जानने योग्य क्या है ? इसके भी कितने भेद हैं ! जाननेके कौन कौन साधन हैं ! किस किस मार्गसे इन साधनोंको प्राप्त किया जाता है ! इस ज्ञानका क्या उपयोग अथवा क्या परिणाम है ? ये सब बातें जानना आवश्यक है। १. ज्ञानकी क्या आवश्यकता है ? पहले इस विषयपर विचार करते हैं । यह आत्मा इस चौदह राजू प्रमाण लोकमें चारों गतियोंमें अनादिकालसे कर्मसहित स्थितिमें पर्यटन करती है । जहाँ क्षणभर भी सुखका भाव नहीं ऐसे नरक, निगोद आदि स्थानोंको इस आत्माने बहुत बहुत कालतक बारम्बार सेवन किया है; असह्य दुःखोंको पुनः पुनः और कहो तो अनंतोंबार सहन किया है । इस संतापसे निरंतर संतप्त आत्मा केवल अपने ही कौके विपाकसे घूमा करती है । इस घूमनेका कारण अनंत दुःख देनेवाले ज्ञानावरणीय आदि कर्म हैं, जिनके कारण आत्मा अपने स्वरूपको प्राप्त नहीं कर सकती, और विषय आदि मोहके बंधनको अपना स्वरूप मान रही है । इन सबका परिणाम - केवल ऊपर कहे अनुसार ही होता है, अर्थात् आत्माको अनंत दुःख अनंत भावोंसे सहन करने पड़ते हैं । कितना ही अप्रिय, कितना ही खेददायक और कितना ही रौद्र होनेपर भी जो दुःख अनंत कालसे अनंतबार सहन करना पड़ा, उस दुःखको केवल अज्ञान आदि कर्मसे ही सहन किया, इसलिये अज्ञान आदिको दूर करनेके लिये ज्ञानकी अत्यन्त आवश्यकता है। ७८ ज्ञानके संबंधमें दो शब्द (२) ... २. अब ज्ञान-प्राप्तिके साधनोंके विषयमें कुछ विचार करें। अपूर्ण पर्याप्तिसे परिपूर्ण आत्म-ज्ञान सिद्ध नहीं होता, इस कारण छह पर्याप्तियोंसे युक्त देह ही आत्म-ज्ञानकी सिद्धि कर सकती है । ऐसी देह एक मानव-देह ही है । यहाँ प्रश्न उठेगा कि जिन्होंने मानव-देहको प्राप्त किया है, ऐसी अनेक आत्मायें हैं, तो वे सब आत्म-ज्ञानको क्यों नहीं प्राप्त करती ! इसके उत्तरमें हम यह मान सकते हैं कि जिन्होंने सम्पूर्ण आत्म-ज्ञानको प्राप्त किया है उनके पवित्र वचनामृतकी उन्हें श्रुति नहीं होती। श्रुतिके विना संस्कार नहीं, और यदि संस्कार नहीं तो फिर श्रद्धा कहाँसे हो सकती है ! और जहाँ इनमेंसे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy