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________________ श्रीमद राजचन्द्र [धर्मध्यान विचय-मैं क्षण क्षणमें जो जो दुःख सहन कर रहा हूँ, भवाटवीमें पर्यटन कर रहा हूँ, अज्ञान आदि प्राप्त कर रहा हूँ, वह सब काके फलके उदयसे है-ऐसा चिंतवन करना धर्मभ्यान नामका तीसरा कर्मविपाकचिंतन भेद है। ४ संस्थानविचय-तीन लोकका स्वरूप चितवन करना । लोकस्वरूप सुप्रतिष्ठितके आकारका है; जीव अजीवसे सर्वत्र भरपूर हैयह असंख्यात योजनकी कोटानुकोटिसे तिरछा लोक है। इसमें असंख्यातो द्वीपसमुद्र हैं। असंख्यातों ज्योतिषी, भवनवासी, व्यंतरों आदिका इसमें निवास है। उत्पाद, व्यय और धौव्यकी विचित्रता इसमें लगी हुई है। अढाई द्वीपमें जघन्य तीर्थंकर बीस और उत्कृष्ट एकसौ सत्तर होते हैं। जहाँ ये तथा केवली भगवान् और निग्रंथ मुनिराज विचरते हैं, उन्हें "वंदामि, नमसामि, सकारेमि, समाणेमि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि" करता हूँ। इसी तरह वहाँके रहनेवाले श्रावक-श्राविकाओंका गुणगान करता हूँ। उस तिरछे लोकसे असंख्यातगुना अधिक ऊर्ध्वलोक है । वहाँ अनेक प्रकारके देवताओंका निवास है। इसके ऊपर ईषत् प्राग्भारा है। उसके ऊपर मुक्तात्मायें विराजती हैं । उन्हें "वंदामि, यावत् पज्जुवासामि" करता हूँ। उस ऊर्ध्वलोकसे भी कुछ विशेष अधोलोक है। उसमें अनंत दुःखोंसे भरा हुआ नरकावास और भुवनपतियोंके भुवन आदि हैं । इन तीन लोकके सब स्थानोंको इस आत्माने सम्यक्त्वरहित क्रियासे अनंतबार जन्म-मरणसे स्पर्श किया है—ऐसा चिंतवन करना संस्थानविचय नामक धर्मध्यानका चौथा भेद है। इन चार भेदोंको विचारकर सम्यक्त्वसहित श्रुत और चारित्र धर्मकी आराधना करनी चाहिये जिससे यह अनंत जन्ममरण दूर हो । धर्मध्यानके इन चार भेदोंको स्मरण रखना चाहिये । ७५ धर्मध्यान (२) धर्मध्यानके चार लक्षणोंको कहता हूँ। १ आज्ञारुचि-अर्थात् वीतराग भगवान्की आज्ञा अंगीकार करनेकी रुचि उत्पन्न होना। २ निसर्गरुचि-आत्माका अपने स्वाभाविक जातिस्मरण आदि ज्ञानसे श्रुतसहित चारित्र-धर्मको धारण करनेकी रुचि प्राप्त करना उसे निसर्गरुचि कहते हैं । ३ सूत्ररुचिश्रुतज्ञान और अनंत तत्त्वके भेदोंके लिये कहे हुए भगवान्के पवित्र वचनोंका जिनमें गूंथन हुआ है, ऐसे सत्रोंको श्रवण करने, मनन करने और भावसे पठन करनेकी रुचिका उत्पन्न होना सूत्ररुचि है। ४ उपदेशरुचि-अज्ञानसे उपार्जित कर्मोंको हम ज्ञानसे खपावें, और ज्ञानसे नये कोको न बाँधे; मिथ्यात्वके द्वारा उपार्जित कर्माको सम्यक्भावसे खपावें और सम्यक्भावसे नये कौको न बाँधे; अवैराग्यसे उपार्जित कर्मीको वैराग्यसे खपावें और वैराग्यसे नये कर्मोको न बाँधे; कषायसे उपार्जित कोको कषायको दूर करके खपावें और क्षमा आदिसे नये कौको न बाँधे; अशुभ योगसे उपार्जित कर्मीको शुभ योगसे खपावें और शुभ योगसे नये कौको न बाँधे; पाँच इन्द्रियोंके स्वादरूप आसबसे उपार्जित कर्मीको संवरसे खपावें और तपरूप (इच्छारोध) संवरसे नये कर्मोको न बाँधे-इसके लिये अज्ञान आदि आसवमार्म छोड़कर ज्ञान आदि संवर-मार्ग ग्रहण करनेके लिये तीर्थकर भगवान्के उपदेशको सुननेकी रुचिके उत्पन्न होनेको उपदेशरुचि कहते हैं । धर्मध्यानके ये चार लक्षण कहे। . धर्मभ्यानके चार आलंबन कहता हूँ-१ वाचना, २ पृच्छना, ३ परावर्त्तमा, ४ धर्मकथा ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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