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________________ ७२ श्रीमद् राजचन्द्र [मोशमुख २७ हमेशा आत्मचरित्रमें सूक्ष्म उपयोगसे लगे रहना। २८ जितेन्द्रियताके लिये एकाग्रतापूर्वक ध्यान करना । २९ मृत्युके दुःखसे भी भयभीत नहीं होना । ३० स्त्रियों आदिके संगको छोड़ना। ३१ प्रायश्चित्तसे विशुद्धि करनी। ३२ मरणकालमें आराधना करनी। ये एक एक योग अमूल्य हैं । इन सबका संग्रह करनेवाला अंतमें अनंत सुखको पाता है। ७३ मोक्षसुख इस पृथिवीमंडलपर कुछ ऐसी वस्तुयें और मनकी इच्छायें हैं जिन्हें कुछ अंशमें जाननेपर भी कहा नहीं जा सकता । फिर भी ये वस्तुयें कुछ संपूर्ण शाश्वत अथवा अनंत रहस्यपूर्ण नहीं हैं । जब ऐसी वस्तुका वर्णन नहीं हो सकता तो फिर अनंत सुखमय मोक्षकी तो उपमा कहाँसे मिल सकती है ! भगवान्से गौतमस्वामीने मोक्षके अनंत सुखके विषयमें प्रश्न किया तो भगवान्में उत्तरमें कहा, गौतम ! इस अनंत सुखको मैं जानता हूँ, परन्तु जिससे उसकी समता दी जा सके, ऐसी यहाँ कोई उपमा नहीं। जगत्में इस सुखके तुल्य कोई भी वस्तु अथवा सुख नहीं, ऐसा कहकर उन्होंने निम्नरूपसे एक भीलका दृष्टांत दिया था। किसी जंगलमें एक भोलाभाला भील अपने बाल-बच्चों सहित रहता था। शहर वगैरहकी समृद्धिकी उपाधिका उसे लेशभर भी भान न था। एक दिन कोई राजा अश्वक्रीड़ाके लिये फिरता फिरता वहाँ आ निकला । उसे बहुत प्यास लगी थी। राजाने इशारेसे भीलसे पानी माँगा। भीलने पानी दिया । शीतल जल पीकर राजा संतुष्ट हुआ । अपनेको भीलकी तरफसे मिले हुए अमूल्य जलदानका बदला चुकानेके लिये भीलको समझाकर राजाने उसे साथ लिया । नगरमें आनेके पश्चात् राजाने भीलको उसकी जिन्दगीमें नहीं देखी हुई वस्तुओंमें रक्खा । सुंदर महल, पासमें अनेक अनुचर, मनोहर छत्र पलंग, स्वादिष्ट भोजन, मंद मंद पवन और सुगंधी विलेपनसे उसे आनंद आनंद कर दिया। वह विविध प्रकारके हीरा माणिक, मौक्तिक, मणिरत्न और रंगबिरंगी अमूल्य चीजें निरंतर उस भीलको देखनेके लिये भेजा करता था, उसे बाग-बगीचोंमें घूमने फिरनेके लिये भेजा करता था, इस तरह राजा उसे सुख दिया करता था। एक रातको जब सब सोये हुए थे, उस समय भीलको अपने बाल-बच्चोंकी याद आई इसलिये वह वहाँसे कुछ लिये करे विना एकाएक निकल पड़ा, और जाकर अपने कुटुम्बियोंसे मिला । उन सबोंने मिलकर पूँछा कि तू कहाँ था! भीलने कहा, बहुत सुखमें । वहाँ मैंने बहुत प्रशंसा करने लायक वस्तुयें देखीं। कुटुम्बी-परन्तु वे कैसी थी, यह तो हमें कह । - भील-क्या कहूँ, यहाँ वैसी एक भी वस्तु ही नहीं। कुटुम्बी-यह कैसे हो सकता है ! ये शंख, सीप, कौवे कैसे सुंदर पड़े हैं। क्या वहाँ कोई ऐसी देखने लायक वस्तु थी !
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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