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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [सुखके विषयमें विचार वेदके सिवाय दूसरे मतोंके प्रवर्तकोंके चरित्र और विचार इत्यादिके जाननेसे वे मत अपूर्ण हैं, ऐसा मालूम हो जाता है । वर्तमानमें जो वेद मौजूद हैं वे बहुत प्राचीन ग्रंथ हैं, इससे इस मतकी प्राचीनता सिद्ध होती है, परन्तु वे भी हिंसासे दूषित होनेके कारण अपूर्ण हैं, और सरागियोंके वाक्य हैं, यह स्पष्ट मालूम हो जाता है। जिस पूर्ण दर्शनके विषयमें यहाँ कहना है, वह जैन अर्थात् वीतरागीद्वारा स्थापित किये हुए दर्शनके विषयमें है। इसके उपदेशक सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे। काल-भेदके होनेपर भी यह बात सिद्धांतपूर्ण मालूम होती है। दया, ब्रह्मचर्य, शील, विवेक, वैराग्य, ज्ञान, क्रिया आदिको इनके समान पूर्ण किसीने भी वर्णन नहीं किया। इसके साथ शुद्ध आत्मज्ञान, उसकी कोटियाँ, जीवके पतन, जन्म, गति, विग्रहगति, योनिद्वार, प्रदेश, काल उनके स्वरूपके विषयमें ऐसा सूक्ष्म उपदेश दिया गया है कि जिससे उनकी सर्वज्ञतामें शंका नहीं रहती। काल-भेदसे परम्पराम्नायसे केवलज्ञान आदि ज्ञान देखने नहीं आते, फिर भी जो जिनेश्वरके कहे हुए सैद्धांतिक वचन हैं, वे अखंड हैं । उनके कितने ही सिद्धांत इतनेमें सूक्ष्म हैं कि जिनमेंसे एक एकपर भी विचार करनेमें सारी जिन्दगी बीत जाय । जिनेश्वरके कहे हुए धर्म-तत्त्वोंसे किसी भी प्राणीको लेशमात्र भी खेद उत्पन्न नहीं होता। इसमें सब आत्माओंकी रक्षा और सर्वात्मशक्तिका प्रकाश सन्निहित है । इन भेदोंके पढ़नेसे, समझनेसे और उनपर अत्यन्त सूक्ष्म विचार करनेसे आत्म-शक्ति प्रकाश पाती है और वह जैन दर्शनको सर्वोत्कृष्ट सिद्ध करती है। बहुत मननपूर्वक सब धर्ममतोंको जानकर पछिसे तुलना करनेवालेको यह कथन अवश्य सत्य मालूम होगा। - निर्दोष दर्शनके मूलतत्त्व और सदोष दर्शनके मूलतत्त्वोंके विषयमें यहाँ विशेष कहनेकी जगह नहीं है। ६१ सुखके विषयमें विचार - एक ब्राह्मण दरिद्रावस्थासे बहुत पीडित था । उसने तंग आकर अंतमें देवकी उपासना करके लक्ष्मी प्राप्त करनेका निश्चय किया। स्वयं विद्वान् होनेके कारण उसने उपासना करनेसे पहले यह विचार किया कि कदाचित् कोई देव तो संतुष्ट होगा ही, परन्तु उस समय उससे क्या सुख माँगना चाहिये ! कल्पना करो कि तप करनेके बाद कुछ मांगनेके लिये न सूक्ष पड़े, अथवा न्यूनाधिक सूक्षे तो किया हुआ तप भी निरर्थक होगा। इसलिये एक बार समस्त देशमें प्रवास करना चाहिये । संसारके महान् पुरुषोंके धाम, वैभव और सुख देखने चाहिये । ऐसा निश्चयकर वह प्रवासके लिये निकल पड़ा। भारतके जो जो रमणीय, आर ऋद्धिवाले शहर थे उन्हें उसने देखा; युक्ति-प्रयुक्तियोंसे राजाधिराजके अंतःपुर, सुख और वैभव देखे, श्रीमंतोंके महल, कारबार, बाग-बगीचे और कुटुम्ब परिवार देखे; परन्तु इससे किसी तरह उसका मन न माना । किसीको स्त्रीका दुःख, किसीको पतिका दुःख, किसीको अज्ञानसे दुःख, किसीको प्रियके वियोगका दुःख, किसीको निर्धनताका दुःख, किसीको लक्ष्मीकी उपाधिका दुःख, किसीको शरीरका दुःख, किसीको पुत्रका दुःख, किसीको शत्रुका दुःख, किसीको जबताका दुःख, किसीको माँ बापका दुःख, किसीको वैधन्यका दुःख, किसीको कुटुम्बका दुःख, किसीको
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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