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________________ ५५ अशुचि किसे कहते हैं ?] मोक्षमाला ५४ अशुचि किसे कहते हैं ? जिज्ञासु-मुझे जैन मुनियोंके आचारकी बात बहुत रुचिकर हुई है। इनके समान किसी भी दर्शनके संतोंका आचार नहीं। चाहे जैसी शीत ऋतुकी ठंड हो उसमें इन्हें अमुक वस्त्रसे ही निभाना पड़ता है, ग्रीष्ममें कितनी ही गरमी पड़नेपर भी ये पैरमें जूता और सिरपर छत्री नहीं लगा सकते । इन्हें गरम रेतीमें आतापना लेनी पड़ती है। ये जीवनपर्यंत गरम पानी पीते हैं। ये गहस्थके घर नहीं बैठ सकते, शुद्ध ब्रह्मचर्य पालते हैं, फूटी कौड़ी भी पासमें नहीं रख सकते, अयोग्य वचन नहीं बोल सकते, और वाहन नहीं ले सकते । वास्तवमें ऐसे पवित्र आचार ही मोक्षदायक हैं। परन्तु नव बाड़में भगवान्ने स्नान करनेका निषेध क्यों किया है, यह बात ययार्थरूपसे मेरी समझमें नहीं बैठती। सत्य-क्यों नहीं बैठती ? जिज्ञासु-क्योंकि स्नान न करनेसे अशुचि बढ़ती है । सत्य-कौनसी अशुचि बढ़ती है ! जिज्ञासु–शरीर मलिन रहता है । सत्य-भाई! शरीरकी मलिनताको अशुचि कहना, यह बात कुछ विचारपूर्ण नहीं। शरीर स्वयं किस चीज़का बना है, यह तो विचार करो । यह रक्त, पित्त, मल, मूत्र, श्लेष्मका भंडार है । उसपर केवल त्वचा की हुई है । फिर यह पवित्र कैसे हो सकता है ? फिर साधुओंने ऐसा कौनसा संसारकर्तव्य किया है कि जिससे उन्हें स्नान करनेकी आवश्यकता हो ? जिज्ञासु-परन्तु स्नान करनेसे उनकी हानि क्या है ? सत्य-यह तोस्थूल बुद्धिका ही प्रश्न है। स्नान करनेसे कामाग्निकी प्रदीप्ति, व्रतका भंग, परिणामका बदलना असंख्यातों जंतुओंका विनाश, यह सब अशुचिता उत्पन्न होती है, और इससे आत्मा महा मलिन होती है, प्रथम इसका विचार करना चाहिये । जीव-हिंसासे युक्त शरीरकी जो मलिनता है वह अशुचि है । तत्व-विचारसे तो ऐसा समझना चाहिये कि दूसरी मलिनताओंसे तो आत्माकी उज्ज्वलता होती है, स्नान करनेसे व्रतभंग होकर आत्मा मलिन होती है, और आत्माकी मलिनता ही अशुचि है। जिज्ञासु-मुझे आपने बहुत सुंदर कारण बताया। सूक्ष्म विचार करनेसे जिनेश्वरके कथनसे शिक्षा और अत्यानन्द प्राप्त होता है । अच्छा, गृहस्थाश्रमियोंको सांसारिक प्रवृत्तिसे अनिच्छित जीवा-हिंसा आदिसे युक्त शरीरकी अपवित्रता दूर करनी चाहिये कि नहीं ! सत्य-बुद्धिपूर्वक अशुचिको दूर करना ही चाहिये । जैन दर्शनके समान एक भी पवित्र दर्शन नहीं, वह यथार्थ पवित्रताका बोधक है। परन्तु शौचाशौचका स्वरूप समझ लेना चाहिये। ५५ सामान्य नित्यनियम प्रभातके पहले जागृत होकर नमस्कारमंत्रका स्मरणकर मनको शुद्ध करना चाहिये। पापव्यापारकी वृत्ति रोककर रात्रिमें हुए दोषोंका उपयोगपूर्वक प्रतिक्रमण करना चाहिये। प्रतिक्रमण करनेके बाद यथावसर भगवान्की उपासना, स्तुति और स्वाध्यायसे मनको उज्ज्वल बनाना चाहिये।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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