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________________ ४२ श्रीमद् राजचन्द्र [सामायिकविचार ७ आलसदोष-अंगका मोड़ना, उँगलियोंका चटकाना आदि आलसदोष है । ८ मोटनदोष-अँगुली वगैरहका टेढ़ी करना, उँगलियोंका चटकाना मोटनदोष है । ९ मलदोष-घसड घसड़कर सामायिक खुजाकर मैल निकालना मलदोष है । १० विमासणदोष-गलेमें हाथ डालकर बैठना इत्यादि विमासणदोष है । ११ निदादोष-सामायिकमें नींद आना निद्रादोष है। १२ वनसंकोचनदोष-सामायिकमें ठंड वगैरेके भयसे वस्त्रसे शरीरका सिकोड़ना वस्त्रसंकोचनदोष है। इन बत्तीस दोषोंसे रहित सामायिक करनाचाहिये । सामायिकके पाँच अतीचारोंको हटाना चाहिये। ३९ सामायिकविचार एकाग्रता और सावधानकि विना इन बत्तीस दोषों से कोई न कोई दोष लग जाते हैं । विज्ञानवेत्ताओंने सामायिकका जघन्य प्रमाण दो घड़ी बाँधा है । यह व्रत सावधानीपूर्वक करनेसे परमशांति देता है । बहुतसे लोगोंका जब यह दो घड़ीका काल नहीं बीतता तब वे बहुत व्याकुल होते हैं । सामायिकमें खाली बैठनेसे काल बीत भी कैसे सकता है ? आधुनिक कालमें सावधानीसे सामायिक करनेवाले बहुत ही थोड़े लोग हैं । जब सामायिकके साथ प्रतिक्रमण करना होता है, तब तो समय बीतना सुगम होता है । यद्यपि ऐसे पामर लोग प्रतिक्रमणको लक्षपूर्वक नहीं कर सकते, तो भी केवल खाली बैठनेकी अपेक्षा इसमें कुछ न कुछ अन्तर अवश्य पड़ता है । जिन्हें सामायिक भी पूरा नहीं आता, वे बिचारे सामायिकमें बहुत घबड़ाते हैं । बहुतसे भारीकर्मी लोग इस अवसरपर व्यवहारके प्रपंच भी घड़ डालते हैं। इससे सामायिक बहुत दूषित होता है। सामायिकका विधिपूर्वक न होना इसे बहुत खेदकारक और कर्मकी बाहुल्यता समझना चाहिये। साठ घड़ीके दिनरात व्यर्थ चले जाते हैं । असंख्यात दिनोंसे परिपूर्ण अनंतों कालचक्र व्यतीत करनेपर भी जो सिद्ध नहीं होता, वह दो घड़ीके विशुद्ध सामायिकसे सिद्ध हो जाता है । लक्षपूर्वक सामायिक करनेके लिये सामायिकमें प्रवेश करनेके पश्चात् चार लोगस्ससे अधिक लोगस्सका कायोत्सर्ग करके चित्तकी कुछ स्वस्थता प्राप्त करनी चाहिये, और बादमें सूत्रपाठ अथवा किसी उत्तम ग्रंथका मनन करना चाहिये । वैराग्यके उत्तम श्लोकोंको पढ़ना चाहिये, पहिलेके अध्ययन किये हुएको स्मरण कर जाना चाहिये और नूतन अभ्यास हो सके तो करना चाहिये, तथा किसीको शास्त्रके आधारसे उपदेश देना चाहिये । इस प्रकार सामायिकका काल व्यतीत करना चाहिये । यदि मुनिराजका समागम हो, तो आगमकी वाणी सुनना और उसका मनन करना चाहिये । यदि ऐसा न हो, और शास्त्रोंका परिचय भी न हो, तो विचक्षण अभ्यासियोंके पास वैराग्य-बोधक उपदेश श्रवण करना चाहिये, अथवा कुछ अभ्यास करना चाहिये । यदि ये सब अनकूलतायें न हों, तो कुछ भाग ध्यानपूर्वक कायोत्सर्गमें लगाना चाहिये, और कुछ भाग महापुरुषोंकी चरित्र-कथा सुननेमें उपयोगपूर्वक लगाना चाहिये, परन्तु जैसे बने तैसे विवेक और उत्साहसे सामायिकके कालको व्यतीत करना चाहिये । यदि कुछ साहित्य न हो, तो पंचपरमेष्ठीमंत्रकी जाप ही उत्साहपूर्वक करनी चाहिये । परन्तु कालको व्यर्थ
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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