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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [नमस्कारमंत्र जो विशुद्ध नव बाड़पूर्वक सुखदायक शीलको धारण करता है, उसका संसार-भ्रमण बहुत कम हो जाता है । हे भाई ! यह तात्विक वचन है ॥ ५॥ सुंदर शीलरूपी कल्पवृक्षको मन, वचन, और कायसे जो नर नारी सेवन करेंगे, वे अनुपम फलको प्राप्त करेंगे ॥६॥ पात्रके विना कोई वस्तु नहीं रहती, पात्रमें ही आत्मज्ञान होता है, पात्र बननेके लिये, हे बुद्धिमान् लोगो, ब्रह्मचर्यका सदा सेवन करो ॥७॥ ३५ नमस्कारमंत्र णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ इन पवित्र वाक्योंको निग्रंथप्रवचनमें नवकार (नमस्कार) मंत्र अथवा पंचपरमेष्ठीमंत्र कहते हैं अहंत भगवान्के बारह गुण, सिद्ध भगवान्के आठ गुण, आचार्यके छत्तीस गुण, उपाध्यायके। पच्चीस गुण, और साधुके सत्ताईस गुण, ये सब मिलकर एक सौ आठ गुण होते हैं । अँगूठेके विना बाकीकी चार अंगुलियोंके बारह पोरवे होते हैं, और इनसे इन गुणोंके चितवन करनेकी व्यावस्था होनेसे बारहको नौसे गुणा करनेपर १०८ होते हैं। इसलिये नवकार कहनेसे यह आशय मालूम होता है कि हे भव्य ! अपनी अँगुलियोंके पोरवोंसे ( नवकार ) मंत्र नौ बार गिन । कार शब्दका अर्थ करनेवाला भी होता है । बारहको नौसे गुणा करनेपर जितने हों, उतने गुणोंसे भरा हुआ मंत्र नवकारमंत्र है, ऐसा नवकारमंत्रका अर्थ होता है । पंचपरमेष्ठीका अर्थ इस सकल जगतमें परमोत्कृष्ट पाँच वस्तुयें होता है । वे कौन कौन हैं ! तो जवाब देते हैं, कि अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इनको नमस्कार करनेका मंत्र परमेष्ठीमंत्र है। पाँच परमेष्ठियोंको एक साथमें नमस्कार होनेसे 'पंचपरमेष्ठीमंत्र ' यह शब्द बना । यह मंत्र अनादिसिद्ध माना जाता है, कारण कि पंचपरमेष्ठी अनादिसिद्ध हैं । इसलिये ये पांचों पात्र आदि रूप नहीं, ये प्रवाहसे अनादि हैं, और उनका जपनेवाला भी अनादिसिद्ध है। इससे यह जाप भी अनादिसिद्ध ठहरती है। प्रश्न-इस पंचपरमेष्ठीमंत्रके परिपूर्ण जाननेसे मनुष्य उत्तम गतिको पाते हैं, ऐसा सत्पुरुष कहते है । इस विषयमें आपका क्या मत है ! उत्तर-यह कहना न्यायपूर्वक है, ऐसा मैं मानता हूँ। प्रश्न-इसे किस कारणसे न्यायपूर्वक कहा जा सकता है ! उत्तर-हाँ, यह तुम्हें मैं समझाता हूँ। मनके निग्रहके लिये यह सर्वोत्तम जगषणके सत्य गुणका चितवन है । तथा तत्त्वसे देखनेपर अर्हतस्वरूप, सिद्धस्वरूप, आचार्यस्वरूप, उपाध्यायस्वरूप और साधुस्वरूप इनका विवेकसे विचार करनेका भी यह सूचक है। क्योंकि वे किस जे नव वाड विशुद्धथी, घरे शियल सुखदार; भव तेनो लव पछी रहे, तस्ववचन ए भाइ ॥ ५ ॥ सुंदर शीयळसुरतरू, मन वाणी ने देह; जे नरनारी सेवशे, अनुपम फल ले तेह ॥ ६ ॥ पात्र विना वस्तु न रे, पाने आत्मिक शान; पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्मचर्य मतिमान ॥ ७॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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