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________________ विनयसे तत्त्वकी सिदि है मोसमाला करनेसे चाहे किसी वस्तुको न खाओ, अथवा उसका भोग न करो, तो भी उससे संवरपना नहीं । कारण कि हमने तत्त्वरूपसे इच्छाका रोध नहीं किया। हम रात्रिमें भोजन न करते हों, परंतु उसका यदि प्रत्याख्यानरूपमें नियम नहीं किया, तो वह फल नहीं देता | क्योंक अपनी इच्छा खुली रहती है । जैसे घरका दरवाजा खुला होनेसे कुत्ते आदि जानवर अथवा मनुष्य भीतर चले आते हैं, वैसे ही इच्छाका द्वार खुला हो तो उसमें कर्म प्रवेश करते हैं। इसलिये इस ओर अपने विचार सरलतासे चले जाते हैं । यह कर्म-बन्धनका कारण है । यदि प्रत्याख्यान हो, तो फिर इस ओर दृष्टि करनेकी इच्छा नहीं होती। जैसे हम जानते हैं कि पीठके मध्य भागको हम नहीं देख सकते, इसलिये उस ओर हम दृष्टि भी नहीं करते, उसी प्रकार प्रत्याख्यान करनेसे हम अमुक वस्तुको नहीं खा सकते, अथवा उसका भोग नहीं कर सकते, इस कारण उस ओर हमारा लक्ष स्वाभाविकरूपसे नहीं जाता। यह कौके आनेके लिये बीचमें दीवार हो जाता है। प्रत्याख्यान करनेके पश्चात् विस्मृति आदि कारणोंसे कोई दोष आ जाय तो उसका प्रायश्चित्तसे निवारण करनेकी आज्ञा भी महात्माओंने दी है। प्रत्याख्यानसे एक दूसरा भी बड़ा लाभ है। वह यह कि प्रत्याख्यानसे कुछ वस्तुओंमें ही हमारा लक्ष रह जाता है, बाकी सब वस्तुओंका त्याग हो जाता है। जिस जिस वस्तुका हमारे त्याग है, उन उन वस्तुओंके संबंधमें फिर विशेष विचार, उनका ग्रहण करना, रखना अथवा ऐसी कोई अन्य उपाधि नहीं रहती । इससे मन बहुत विशालताको पाकर नियमरूपी सड़कपर चला जाता है । जैसे यदि अश्व लगाममें आ जाता है, तो फिर चाहे वह कितना ही प्रबल हो उसे अभीष्ट रास्तेसे ले जाया जा सकता है, वैसे ही मनके नियमरूपी लगाममें आनेके बादमें उसे चाहे जिस शुभ रास्तेसे ले जाया जा सकता है, और उसमें बारम्बार पर्यटन करानेसे वह एकाग्र, विचारशील, और विवेकी हो जाता है । मनका आनन्द शरीरको भी निरोगी करता है। अभक्ष्य, अनंतकाय, परस्त्री आदिका नियम करनेसे भी शरीर निरोगी रह सकता है । मादक पदार्थ मनको कुमार्गपर ले जाते हैं। परन्तु प्रत्याख्यानसे मन वहाँ जाता हुआ रुक जाता है । इस कारण वह विमल होता है। प्रत्याख्यान यह कैसी उत्तम नियम पालनेकी प्रतिज्ञा है, यह बात इसके ऊपरसे तुम समझे होगे । इसको विशेष सद्गुरुके मुखसे और शास्त्रावलोकनसे समझनेका मैं उपदेश करता हूँ। ३२ विनयसे तत्त्वकी सिद्धि है राजगृही नगरीके राज्यासनपर जिस समय श्रेणिक राजा विराजमान था उस समय उस नगरीमें एक चंडाल रहता था। एक समय इस चंडालकी स्त्रीको गर्भ रहा। चंडालिनीको आम खानेकी इच्छा उत्पन्न हुई । उसने आमोंको लानेके लिये चंडालसे कहा । चंडालने कहा, यह आमोंका मौसम नहीं, इसलिये मैं निरुपाय हूँ। नहीं तो मैं आम चाहे कितने ही ऊँचे हों वहींसे उन्हें अपनी विद्याके बलसे तोड़कर तेरी इच्छा पूर्ण करता । चंडालिनीने कहा, राजाकी महारानीके बागमें एक असमयमें फल देनेवाला आम है । उसमें आजकल आम लगे होंगे । इसलिये आप वहाँ जाकर उन आमोंको लावें । अपनी स्त्रीकी इच्छा पूर्ण करनेको चंडाल उस बागमें गया । चंडालने गुप्त रीतिसे आमके समीप जाकर मंत्र पढ़कर वृक्षको नमाया, और उसपरसे आम तोड़ लिये। बादमें दूसरे मंत्रके द्वारा उसे जैसाका तैसा कर दिया । बादमें चंडाल अपने घर आया । इस तरह अपनी स्त्रीकी इच्छा पूरी करनेके
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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