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________________ ____.. श्रीमद् राजचन्द्र बारह भावनी . ४ जैसे शकट-चक्र बैलके विना नहीं चल सकता, वैसे ही संसार-चक्र राग और द्वेषके विना नहीं चल सकता। - इस प्रकार इस संसार-रोगके निवारणके प्रतीकारको उपमाद्वारा अनुपान आदिके साथ कहा है । इसे आत्महितैषियोंको निरंतर मनन करना और दूसरोंको उपदेश देना चाहिये। २१ बारह भावना ____वैराग्य और ऐसे ही अन्य आत्म-हितैषी विषयोंकी सुदृढ़ता होनेके लिये तत्वज्ञानियोंने बारह भावनाओंका चितवन करनेके लिये कहा है। १ शरीर, वैभव, लक्ष्मी, कुटुंब, परिवार आदि सब विनाशी हैं । जीवका मूलधर्म अविनाशी है, ऐसे चितवन करना पहली ' अनित्यभावना' है । . २ संसारमें मरणके समय जीवको शरण रखनेवाला कोई नहीं, केवल एक शुभ धर्मकी शरणं ही सत्य है, ऐसा चितवन करना दूसरी' अशरणभावना' है। . ३ " इस आत्माने संसार-समुद्र में पर्यटन करते हुए सम्पूर्ण भवोंको भोगा है । इस संसाररूपी जंजीरसे मैं कब छु,गा । यह संसार मेरा नहीं, मैं मोक्षमयी हूँ," ऐसा चितवन करना तीसरी 'संसारभावना है। ... ... .४ " यह मेरा आत्मा अकेला है, यह अकेला आया है, अकेला ही जायगा, और अपने किये हुए कर्मोको अकेला ही भोगेगा," ऐसा चितवन करना चौथी 'एकत्वभावना है। ५ इस संसार में कोई किसीका नहीं, ऐसा चितवन करना पाँचवी 'अन्यत्वभावना है। ६" यह शरीर अपवित्र है, मल-मूत्रकी खान है, रोग और जराके रहनेका धाम है, इस शरीरसे मैं न्यारा हूँ," ऐसा चितवन करना छही 'अशुचिभावना' है। । .:. ..७ राग, द्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व इत्यादि सब आश्रवके कारण हैं, ऐसा चिंतवन करना सातवीं 'आश्रवभावना' है। .. ८जीव, ज्ञान और ध्यानमें प्रवृत्त होकर नये कौको नहीं बाँधता, ऐसा चितवन करना आठवीं 'संवरभावना' है। : ९ ज्ञानसहित क्रिया करना निर्जराका कारण है, ऐसा चितवन करना नौवीं 'निर्जराभावना' है । १० लोकके स्वरूपकी उत्पत्ति, स्थिति, और विनाशका स्वरूप विचारना, वह दसवीं 'लोकस्वरूप भावना' है। . . ११ संसारमें भटकते हुए आत्माको सम्यग्ज्ञानकी प्रसादी प्राप्त होना दुर्लभ है; अथवा सम्यग्ज्ञान प्राप्त भी हुआ तो चारित्र-सर्व विरतिपरिणामरूप धर्म-का पाना दुर्लभ है, ऐसा चिंतवन करना ग्यारहवीं 'बोधिदुर्लभभावना' है। १२ धर्मके उपदेशक तथा शुद्ध शास्त्रके बोधक गुरु, और इनके उपदेशका श्रवण मिलना दुर्लभ है, ऐसा चितवन करना बारहवीं 'धर्मदुर्लभभावना' है। इन बारह भावनाओंको मननपूर्वक निरंतर विचारनेसे सत्पुरुषोंने उत्तम पदको पाया है, पाते है, और पावेंगे। ... .. ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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