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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [ संसारकी चार उपमायें देवगति–परस्पर वैर, ईर्ष्या, क्लेश, शोक, मत्सर, काम, मद, क्षुधा, आदिसे देवलोग भी आयु व्यतीत कर रहे हैं। यह देवगति है। इस प्रकार चारों गतियोंका स्वरूप सामान्य रूपसे कहा। इन चारों गतियोंमें मनुष्यगति सबसे श्रेष्ठ और दुर्लभ है, आत्माका परमहित-मोक्ष इस गतिसे प्राप्त होता है । इस मनुष्यगतिमें भी बहुतसे दुःख और आत्मकल्याण करनेमें अंतराय आते हैं। एक तरुण सुकुमारको रोमरोममें अत्यंत तप्त लाल सूए चुभानेसे जो असह्य वेदना होती है उससे आठगुनी वेदना जीव गर्भस्थानमें रहते हुए प्राप्त करता है । यह जीव लगभग नव महीना मल, मूत्र, खून, पीप आदिमें दिनरात मूर्छागत स्थितिमें वेदना भोग भोगकर जन्म पाता है। गर्भस्थानकी वेदनासे अनंतगुनी वेदना जन्मके समय होती है । तत्पश्चात् बाल्यावस्था प्राप्त होती है। यह अवस्था मल मूत्र, धूल और नग्नावस्थामें अनसमझीसे रो भटककर पूर्ण होती है । इसके बाद युवावस्था आती है। इस समय धन उपार्जन करनेके लिये नाना प्रकारके पापोंमें पड़ना पड़ता है। जहाँसे उत्पन्न हुआ है, वहींपर अर्थात् विषय-विकारमें वृत्ति जाती है । उन्माद, आलस्य, अभिमान, निंद्य-दृष्टि, संयोग, वियोग, इस प्रकार घटमालमें युवा वय चली जाती है । फिर वृद्धावस्था आ जाती है । शरीर काँपने लगता है, मुखसे लार बहने लगती है, त्वचापर सिकुड़न पड़ जाती है; सूंघने, सुनने, और देखनेकी शक्तियों बिलकुल मंद पड़ जाती हैं। केश धवल होकर खिरने लगते हैं। चलनेकी शक्ति नहीं रहती; हाथमें लकड़ी लेकर लड़खबाते हुए चलना पड़ता है; अथवा जीवन पर्यंत खाटपर ही पड़ा रहना पड़ता है। श्वास, खांसी, इत्यादि रोग आकर घेर लेते हैं; और थोड़े कालमें काल आकर कवलित कर जाता है। इस देहमेंसे जीव चल निकलता है । कायाका होना न होनेके समान हो जाता है। मरण समयमें भी कितनी अधिक वेदना होती है ! चारों गतियोमें श्रेष्ठ मनुष्य देहमें भी कितने अधिक दुःख भरे हुए हैं । ऐसा होते हुए भी ऊपर कहे अनुसार काल अनुक्रमसे आता हो यह बात भी नहीं । वह चाहे जब आकर ले जाता है । इसीलिये बिचक्षण पुरुष प्रमादके विना आत्मकल्याणकी आराधना करते हैं। १९ संसारकी चार उपमायें संसारको तत्त्वज्ञानी एक महासमुद्रकी भी उपमा देते हैं । संसार रूपी समुद्र अनंत और अपार है। अहो प्राणियों ! इससे पार होनेके लिये पुरुषार्थका उपयोग करो! उपयोग करो ! इस प्रकार उनके अनेक स्थानोंपर वचन हैं। संसारको समुद्रकी उपमा उचित भी है। समुद्रमें जैसे लहरें उठा करती हैं, वैसे ही संसारमें विषयरूपी अनेक लहरें उठती हैं । जैसे जल ऊपरसे सपाट दिखाई देता है, वैसे ही संसार भी सरल दीख पड़ता है। जैसे समुद्र कहीं बहुत गहरा है, और कहीं भँवरोंमें डाल देता है, वैसे ही संसार काम विषय प्रपंच आदिमें बहुत गहरा है और वह मोहरूपी भँवरोंमें डाल देता हैं । जैसे थोड़ा जल रहते हुए भी समुद्रमें खड़े रहनेसे कीचड़में फंस जाते हैं, वैसे ही संसारके लेशभर प्रसंगमें भी वह तृष्णारूपी कीचड़में धंसा देता है। जैसे समुद्र नाना प्रकारकी चट्टानों और तूफानोंसे नाव अथवा जहाजको जोखम पहुँचाता है, वैसे ही संसार स्त्रीरूपी चट्टानें और कामरूपी तूफानसे आत्माको जोखम पहुँचाता है। जैसे समुद्रका अगाध जल शीतल दिखाई देनेपर भी उसमें वडवानल अमि वास करती है, वैसे ही संसारमें माया
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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